Wednesday 12 September 2018

अनूक्तम्-१५ समर्थः असमर्थः च

समर्थः असमर्थः च

कदाचित् ग्रामसीम्नि क्षेत्रे द्वौ बालौ धावन्तौ खेलतः स्म। ज्येष्ठः दशहायनः। कनीयः षड्वर्षीयः। खेलने धावने च अदृष्ट्वा ज्येष्ठः कूपे पतितः। कूपः अगाधः। तत्र कोऽपि नासीत् साहाय्यार्थम् । जले मज्जन्, उद्गच्छन् च आक्रोशति स्म ज्येष्ठः। अवरजः काञ्चित् रज्जुयुक्तां द्रोणीं दृष्टवान्। तदुत्थाप्य कूप्यां पातितवान्। भ्रातरं तद्ग्रहीतुमुक्तवान्। अग्रजः तद्गृहीतवान्। अनुजः यथाशक्ति तां रज्जूं तत्र वृक्षे सम्बद्ध्य शनैः शनैः आक्रष्टुमारभत। अर्धघण्टायां ज्येष्ठः बहिरागच्छत्।
    द्वावपि सानन्दं ग्रामं गत्वा वृत्तं सर्वमुक्तवन्तौ। किन्तु केऽपि तं न विश्वसन्ति स्म। ‘षड्वर्षीयः कथं दशवर्षीयं बहिरानयेत्? तदपि कूप्याः? असाध्यमिदम्!’ इति उक्तवन्तः सर्वे। किन्तु कश्चिदेकस्तु इदं सत्यमिति स्व्यकरोत्। कथमिदं शक्यम्? इति पृष्टे स उक्तवान्- “‘अहं बलहीनोऽस्मी’ति कनीयः न जानाति। ‘त्वम् एतस्मै कार्याय अशक्तोऽसि’, ‘एतत्त्वया न साध्यते’- इति वा वक्तुं तत्र कोऽपि नासीत्। अतः सः अकरोत्। यदि कोऽपि तमित्थं वदेत्, सः साहाय्यार्थं ग्रामं प्रति धावेत्, तदन्तरे ज्येष्ठः म्रियेत। ‘त्वमसमर्थः, अशक्तः’ इति वक्तुं कस्मिन्नपि अन्तिके न तिष्ठति नरः यत्किञ्चित् कर्तुं पारयेत। कूपी वा भवतु, जीवनं वा।” इति।

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సమర్థుడు అసమర్థుడు
 
ఊరి బయట పొలం దగ్గర ఇద్దరబ్బాయిలు పరుగులు పెట్టి ఆడుకుంటున్నారు. ఒకడు పదేళ్ల వాడు. ఇంకొకడు ఆరేళ్ల వాడు. పెద్దోడు పరుగెడుతూ చూసుకోకుండా బావిలో పడిపోయాడు. బావి చాలా లోతు. చుట్టుపక్కల ఎవరూ సహాయానికి లేదు. నీట మునిగి తేలుతూ కేకలేస్తున్నాడు పెద్దవాడు. చిన్నోడు ఒక తాడు కట్టిన బొక్కెనను చూశాడు. దాన్ని బావిలోకి విసిరాడు. అన్నను తాడును పట్టుకోమన్నాడు. అన్న పట్టుకున్నాడు. చిన్నోడు తన శక్తినంతా కూడగట్టుకుని తాడును ఒక చెట్టుకి కట్టి పైకి లాగడం మొదలు పెట్టాడు. ఒక అరగంటలో పెద్దోడు బయటకు వచ్చాడు.
    ఇద్దరూ ఆనందంగా ఊళ్లోకి పోయి వాళ్లకు జరిగిందంతా చెప్పారు. కానీ ఊళ్లో ఎవరూ నమ్మలేదు. ఆరేళ్ల వాడు పదేళ్ల వాడిని లాగడమేమిటి? అందునా బావి నుంచా? అసాధ్యం ఇది..!- అని అన్నారు. కానీ ఒక వ్యక్తి మాత్రం నమ్ముతాను అన్నాడు. ఎలా సాధ్యమిది? అని అడిగితే చెప్పాడు- "తనకి అంత బలం లేదన్న సంగతి చిన్నోడికి తెలియదు. ఒరే, నువ్వు చేయలేవురా, అది నీవల్ల సాధ్యం కాదురా- అని చెప్పేవారెవరూ కూడా అక్కడ లేరు. కాబట్టి వాడు చేయగలిగాడు. ఒకవేళ ఎవరైనా అట్ల చెప్పే వాళ్లుంటే వాడు సహాయం కోసం ఊళ్లోకి పరిగెత్తేవాడు. పెద్దోడు చచ్చిపోయి ఉండేవాడు. 'నీవల్ల కాదు' అని చెప్పేవాడు లేకుంటే మనిషి ఎంత పనైనా చేస్తాడు. అది బావైనా, బతుకైనా అంతే..."
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 समर्थ और असमर्थ

एक बार किसी गाँव के बाहर खेत में दो बालक दौड़ते हुए खेल रहे थे। बड़ा वाला दस साल का और छोटा वाला छे साल का। खेलते समय दौड़ते हुए, बिना देखे, बड़ा वाला कुए में गिर गया। वह कुआ बहुत ही गहरा था। वहां पर कोई भी सहाय कार्य के लिए नहीं था। पानी में डूबते हुए और बाहर आते हुए बड़ा लड़का चिल्ला रहा था। छोटे वाले ने एक रस्सी से बंधे बाल्टी को देखा। उसको उठाकर कुएं में फेंका। अपने भाई को उसे पकड़ने को कहा। बड़े ने उसे पकड़ लिया। छोटे वाले ने यथाशक्ति उस रस्सी को वहां किसी पेड़ से बांधकर धीरे-धीरे खींचना शुरु किया। आधे घंटे में बड़ा वाला बाहर आ गया। दोनों ने बहुत ही आनंदित होकर गांव जाकर सारी घटना सभी को सुनाई। पर किसी ने उन पर विश्वास नहीं किया।
‘छे साल का बालक दस साल वाले को कैसे बाहर ला सकता है? वह भी कुवे से? यह असत्य है’ ऐसा सभी ने कह डाला। पर किसी एक ही व्यक्ति ने इसे सच माना। ‘यह कैसे संभव है?’ ऐसा पूछने पर उसने बताया- “मैं बलहीन हूं- यह बात छोटा वाला नहीं जानता। ‘तुम इस कार्य के लिए अशक्त हो। यह कार्य तुमसे संभव नहीं है’। ऐसा कहने के लिए वहां पर कोई नहीं था। इसीलिए उसने किया। यदि कोई ऐसा उससे कहता, तो वह सहायता के लिए गांव के प्रति दौड़ता और उसी के बीच बड़ा वाला मर जाता। ‘तुम असमर्थ हो, तुम अशक्त हो’ ऐसा कहने के लिए किसी के पास कोई नहीं रहता तो, वह व्यक्ति कुछ भी कर सकता है। चाहे वह कुआं हो, या जीवन हो।”
[वाट्साप पर प्राप्त किसी सन्देश का अनुवाद ]

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