Wednesday 12 September 2018

अनूक्तम्-६ माता तुलसीपादप इव पिता कण्डूरवृक्ष इव

माता तुलसीपादप इव 
पिता कण्डूरवृक्ष इव
(अनुवादलेखः)

    कदाचित् बीरबलः सभां विलम्बेन जगाम।
    तेन अकबरः अपृच्छत्—“कुतो विलम्बः?”
    बीरबलः अवदत्—“प्रभो, अद्य अस्मद्गृहे तुलसीमातुः पूजा आसीत्। मातुः पूजने विलम्बः।”
    अकबरः अहसत्। “तुलसी! माता! अहह अहहा! किमयं लघुवृक्षकः तव मातास्ति?” इत्थमुक्त्वा सः अट्टहासं कृतवान्। “कोऽत्र भोः?? सवेगं तुलसीतरुमानय!”
    महाराजस्य आज्ञां प्राप्य सपदि पुण्या सा आनीता। सभायामेव सर्वेषां सम्मुखे अकबरः सुरवल्लीं अल्पांशेषु विच्छेद्य अक्षिपत्। “पश्य, तव जननीं किमहं कृतवानिति!”
    अथ बीरबलः किमपि अनुक्त्वा, केवलं “आं प्रभो!” इति अशंसत्।
    अन्येद्युः बीरबलः पुनः वेलातिक्रमेण आगतः।
    “अद्यापि त्वं चिरेणागतोऽसि?” इत्यपृच्छत् अकबरः।
    “महाराज, ह्यः मम अम्बायाः पूजा आसीत्। अधुना मम पितुः पूजनमस्ति।”
    “किं तव जनकोऽपि कोऽपि विटपी?”
    “आं राजन्।”
    “तर्हि स वृक्षोऽपि आनीयताम्।”
    स तरुः सभान्तः आह्रियत। अकबरः अब्रवीत्—“अहं तव जनयित्र्याः कार्यं समपादयम्। अधुना तव जनयितुः कर्म परिसमापयामि। पश्य!” एवम् उक्त्वा सः पूर्णं वृक्षकं छिन्नं भिन्नं च कृत्वा क्षुद्रभागेषु विभक्तवान्।
    कञ्चित् कालं पश्चात् अकबरः कण्डूयितुमारभत । प्रथमं तु सङ्कोचात् गोप्यं कण्डूयितवान्.. पश्चात्तु बह्वधिकं बलेन कण्डूयनं प्रारभत। तत्पश्चात् सर्वाणि वस्त्राणि अपाकृत्य भूम्यां विलुण्ठन् अकण्डूयत।“अरे! किमभवत्? रक्ष! पाहि!” इति चाक्रोशत्।
    बीरबलः अत्यन्तं विनयं दर्शयन् उवाच—“नृपाल, मम प्रसूः अत्यन्तं शान्तस्वभावा अस्ति। किमपि न करोति। किन्तु मम पितृपादः तथा नास्ति। बहुक्रोधी सः। नासिकायामेव तस्य कोपः तिष्ठतीव।”
    “कोऽस्ति तव तातः?”
    “प्रभो, वृन्दाद्रुमकः मम जनी भवति। कण्डूरवृक्षः मम जनितास्ति। भवान् कण्डूरपत्रेण विरोधम् आहूतवान्।”
    अकबरः भूम्यां लुण्ठति स्म। अपृच्छत् च—“तर्हि अद्य किं वा करोमि, येन इयं खर्जूः निर्गच्छेत्?”
    “नृप, अस्य एक एव उपायः। मम जन्मदस्य अमर्षं मम प्रसूरेव न्यूनीकर्तुं समर्था। अतः भवान् तां प्रणमतु। तुलसीपत्राणां रसं शरीरे आलेपयतु। खर्जूः अपयास्यति।”
    अकबरः एकेनैव हस्तेन कण्डूयन् अपरेण हस्तेन तुलसीं प्रति प्रणाममाचरत्। रसं च आलेप्य खुर्जूम् अपाकृतवान्।
    यः धर्मविरुद्धं वदेत् तेन एवमेवाचरेत् ।
----------------------

మా తల్లి తులసి.
మా తండ్రి దురదగుంటాకు 

"బీర్బల్, దర్బారుకు ఆలస్యంగా ఎందుకు వచ్చావు?"
    "ఆలంపనా, ఈ రోజు మా తులసీ మాత పూజ ప్రభూ! అమ్మకు పూజచేయడంలో ఆలస్యం అయిపోయింది."
    అక్బర్ కి నవ్వొచ్చింది. "తులసీమాత. హ హ హ హ. ఈ చిన్న మొక్క మీకు తల్లా?" అంటూ వికటాట్టహాసం చేశాడు.
    "ఎవరక్కడ? ఒక తులసి చెట్టును తెప్పించండి." సభలోకి తులసి తేబడింది. సభలో అందరి ముందే తులసి మొక్కను చింపి పోగులు పోశాడు అక్బర్. "చూశావా? నీ మాతను ఏం చేశానో!" అన్నాడు.
    బీర్బల్ ఏమీ అనలేదు. "చిత్తం జహాపనాహ్" అన్నాడు.
    మరుసటి రోజూ బీర్బల్ ఆలస్యంగా వచ్చాడు.
    "ఈ రోజేమిటి బీర్బల్ మళ్ళీ ఎందుకు ఆలస్యం?"
    "ప్రభూ నిన్న మా తల్లిగారి పూజ అయింది. ఇవాళ్ల తండ్రిగారి పూజ."
    "మీ తండ్రి కూడా ఒక మొక్కేనా"
    "అవును ప్రభూ."
    "ఆ మొక్కను తీసుకురండి"
    ఆ మొక్కని దర్బారులో పెట్టారు.
    అక్బర్- "మీ అమ్మ పని పట్టాను. ఇక మీ అబ్బ పని పడ్తాను చూసుకో!" అంటూ ఆ మొక్కను చింపి పోగులు పోశాడు.
    కాసేపటికి అక్బర్ కు దురద మొదలైంది. ముందు మర్యాదగా కనీ కనిపించనట్టు గోక్కున్నాడు. తరువాత బరబరా గోక్కున్నాడు. బట్టలువిప్పి మరీ నేలపై పొర్లుతూ గోక్కోవడం మొదలుపెట్టడు. "అమ్మోయ్ బాబోయ్! నాకేమైంది? బీర్బల్!!" అంటూ గావుకేకలు పెట్టాడు.
    బీర్బల్ నెమ్మదిగా, తెచ్చిపెట్టుకున్న వినయంతో, "జహాపనాహ్, మా తల్లి శాంత స్వభావురాలు. ఏమీ చేయదు. కానీ మా తండ్రి అలాంటివాడు కాదు. ఆయనకు ముక్కుమీదే కోపం."
    "ఎవరయ్యా ఈ తండ్రి?? బాధ భరించలేకపోతున్నాను."
    "తులసి మాకు తల్లి. దూలగొండి మాకు తండ్రి. దూలగొండిని కెలుక్కున్నారు మరి." అన్నాడు బీర్బల్.
    "ఏం చేయాలయ్యా? ఎలా తగ్గుతుందయ్యా ఈ దురద.?" అక్బర్ గారు నేలమీద పడి దొర్లుతున్నాడు.
    "ప్రభూ దీనికి ఒకటే మార్గం. మా తండ్రి గారి కోపాన్ని మా తల్లి మాత్రమే శాంతింపచేయగలదు. కాబట్టి ఆమెకు మొక్కండి. తులసి ఆకుల రసాన్ని పూసుకొండి. దురద తగ్గుతుంది." అన్నాడు బీర్బల్.
    అక్బర్ ఓ చేత్తో గోక్కుంటూనే రెండో చేత్తో తులసమ్మకు దణ్ణం పెట్టాడు. తులసి రసం రాచుకుని దురదబాధ తీర్చుకున్నాడు.
    ధర్మం గురించి వ్యతిరేకంగా మాట్లాడే వాళ్ళకు ఇలాగే బుద్ధి చెప్పాలి.

----------------------
माँ तुलसीपौधे की तरह होती हैं
पिता बिछुआ पेड़ के समान

एकदिन बीरबल दरबार में देर से गया।
    तो अकबर ने पूछा—“क्यों देर से आए हो?”
    बीरबल ने कहा—“आलमपनाह, आज हमारे घर में तुलसी माता की पूजा थी। मां के पूजन में देर हो गई।”
    अकबर को हंसी आ गई। “तुलसी माता! हा हा हा! यह छोटा सा पौधा तुम्हारी मां है?” यह कहकर वह जोर से हंस पड़ा। “कोई है?? जल्दी से तुलसी पौधे को लेकर आओ!”     बादशाह की आज्ञा पाते ही तुलसी का पौधा प्रकट हुआ। सभा में सभी के सामने अकबर ने तुलसी पौधे को छोटे-छोटे टुकड़ों में काट फेंका। “देखा तुम्हारी मां के साथ मैंने क्या किया?”
    इसपर बीरबल ने कुछ नहीं कहा। बस “हां जहांपनाह” इतना कहा।
    अगले दिन बीरबल फिर देर से आया।
    “आज फिर तुमने देर क्यों लगाई?” पूछा अकबर ने।
    “महाराज, कल मेरी मां की पूजा हुई। आज मेरे पिताजी की पूजा थी।”
    “क्या तुम्हारे पिताजी भी कोई पौधा है?”
    “हां महाराज”
    “तो उस पौधे को ले आओ।”
    उस पौधे को दरबार में लाया गया। अकबर ने कहा—“मैं ने तुम्हारे मां का काम निपटा दिया। अब तुम्हारे बाप का काम निपटा देता हूं। देखो!” ऐसा कहकर उसने पूरे पौधे को नोच डाला और छोटे छोटे टुकडे कर डाले।
    थोड़ी देर के बाद अकबर खुजलाने लगा। पहले संकोच के कारण बिना दिखे खजलाया.. फिर बाद में बहुत ही जोर जोर से खुजलाने लगा। फिर सारे कपड़े उतार के और जमीन पर लोट लोट कर खुजलाने लगा। “अरे! क्या हुआ मुझे? बचाओ! बचाओ!” ऐसा चिल्लाने लगा।
    बीरबल ने बहुत ही विनय दिखाते हुए कहा—“जहांपनाह, मेरी मां बहुत शांत स्वभाव की है। कुछ नहीं करती। पर मेरे पिता ऐसे नहीं हैं। उन्हें गुस्सा बहुत आता है। समझो नाक पर चढ़ा रहता है।”
    “कौन है रे तुम्हारे पिता?”
    “प्रभु, तुलसी मेरी मां है। और बिछुआ पेड़ मेरे पिता हैं। आपने खुजलाने वाले पत्ते के साथ पंगा लिया है।”
    अकबर ज़मीन पर लोट रहा था। पूछा—“तो अब क्या करूं जिससे यह खुजली निकल जाए?”
    “प्रभु इसका एक ही उपाय है। मेरे पिता का गुस्सा केवल मेरी मां ही कम कर सकती है। अतः आप उनका प्रणाम करें। और तुलसी पत्तों के रस को शरीर में लगाए। खुजली कम हो जाएगी।”
    अकबर ने एक हाथ से खुजलाते हुए दूसरे हाथ से तुलसी को प्रणाम किया और रस लगाकर अपना खुजली का इलाज किया।
    जो धर्म के विरुद्ध बात करते हैं उनके साथ ऐसा ही करना चाहिए।

[वाट्साप् से प्राप्त एक तेलुगु सन्देश का हिन्दी अनुवाद]

No comments:

Post a Comment