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स्वर्णरजतयोः किं मूल्यवत्? 🌷
(अनूदितलेखः)
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कस्मिंश्चित् ग्रामे
कश्चन मनीषी वसति स्म। तस्य पाण्डित्यस्य कीर्तिः सर्वत्र व्याप्ता आसीत्।
कदाचित् देशस्य महीपालः तं चर्चायै आह्वयत्। चर्चान्ते राजा अवदत्–
“आर्य, त्वं ज्ञानी असि, विद्यावान् असि। किन्तु तव पुत्रस्तु मूर्खोऽस्ति। क्थमेतत्? तमपि किञ्चित् पाठय। स तु सुवर्णरजतयोः मूल्यवत् किमित्यपि न जानाति।”
इत्थमुक्त्वा स भूमिपालः उच्चैः अहसत्।
सः विद्वान् खिन्नो
जातः। गृहमागत्य सुतमपृच्छत्- “स्वर्णरजतयोः किं मूल्यवत्?”
इति।
“स्वर्णम्” इति क्षणमपि अविचिन्त्य तस्य कुमारः प्रत्युत्तरमयच्छत्।
“तव समाधानं तु
समीचीनमेव, किन्तु नृपालः कुत एवमुक्तवान्? सर्वेषां पुरतः मम अपहास्यमकरोत् सः।”
तस्य सूनुः
सर्वमवगतवान्। सोऽब्रवीत्- “नृपः ग्रामं निकषा काञ्चित्
मुक्तसभां करोति। लब्धप्रतिष्ठाः जनाः सर्वे तत्र भागं गृह्णन्ति। सा सदः मम विद्यालयस्य
मार्गमध्ये अस्ति। यदा स मां पश्यति सपदि आह्वयति। एकस्मिन् हस्ते हेममुद्रां,
अपरे च रजतमुद्रां गृहीत्वा मां वदति, ‘यन्मूल्यवत्
तत् चिनोतु’ इति। अहं रजतमुद्रां गृह्णामि। सर्वे उच्चैः
अपहसन्ति। विनोदभावमनुभवन्ति च। एवं प्रायः प्रतिदिनं घटते।” इति।
“तर्हि त्वं
स्वर्णमुद्रां कुतो न स्वीकरोषि? जनसभायां स्वस्य, मम च अपमाननां कुतः कारयसि?”
स बालः अहसत्। पितरं च
हस्तेन गृहीत्वा गृहान्तम् अनयत्। निधायाः मञ्जूषाम् उद्घाट्य प्रादर्शयत्। सा
रजतमुद्राभिः पूर्णा आसीत्।
तत् दृष्ट्वा प्राज्ञः आश्चर्यचकितोऽभवत्।
तस्य तनूजोऽवाच- “तात, यस्मिन् दिवसेऽहं हिरण्यमुद्रां चिनोमि,
तदा क्रीडेयं समाप्तिमेष्यति। यदि ते मां अविवेकिनं मत्वा परिहसन्ति,
परिहसन्तु नाम। यद्यहं बुद्धिमानिति तान् दर्शयामि, तेन मम को वा लाभः? अहं विदग्धपुत्रः। अतः मेधया
कार्यं करोमि। यदि वस्तुतः मूर्खः भवामि, तदन्यत्। मूर्ख इति
सम्भावितोऽस्मि तदन्यत्।” इति।
काञ्चनसदृशावसरस्य
प्रतीक्षायाः प्रत्येकम् अवसरस्य कनकत्वेन परिवर्तनं वरम्। विद्वान् भगवता मेधां
प्राप्तवान्। कदापि तस्याम् अविश्वासः मास्तु।
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--उषाराणी सङ्का
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ఏది
విలునవైనది? 🌷
ఒక గ్రామంలో ఒక పండితుడు
ఉండేవాడు. అతడి పాండిత్యం గురించి చాలా దూరదూరాల వరకు కీర్తి వ్యాపించింది. ఒకసారి
ఆ దేశపు రాజు అతడిని ఆహ్వానించాడు. చర్చ చివరలో అతడితో అన్నాడు- “అయ్యా నీవు
జ్ఞానివి. విద్యావంతుడవు. కానీ నీ కొడుకు ఇంత మూర్ఖుడేంటి? అతడిని కూడా కాస్త
చదివించు. అతడికి బంగారము వెండి మధ్యలో ఏది విలువైనదో కూడా తెలియదు.”
ఇంతవరకు చెప్పి ఆ రాజు పెద్దగా నవ్వాడు. పండితుడు
ఆ మాటకు చాలా బాధపడ్డాడు. ఇంటికి వచ్చి తన కొడుకును అడిగాడు- “బంగారము వెండి ఈ
రెంటిలో ఏది విలువైనది?” అని.
“బంగారము” ఒక క్షణం కూడా
ఆలోచించకుండా అతని కొడుకు సమాధానం చెప్పాడు.
“నీ సమాధానం సరైనదే. మరి రాజు ఎందుకు ఇట్లా
అన్నాడు? అందరి ఎదుట నన్ను పరిహసించాడు.”
అది విని అతడి కొడుకుకు విషయం మొత్తం అర్థం
అయింది. అతడు అన్నాడు- “రాజు ఈ ఊరికి దగ్గరలో ఒక సభను నిర్వహిస్తాడు. గొప్పగా
పేరుపొందిన వారంతా అక్కడ భాగం గ్రహిస్తారు. ఆ సదస్సు నేను బడికి పోయే దారిలో
వస్తుంది. అతడు నన్ను చూడగానే వెంటనే పిలుస్తాడు. ఒక చేతిలో బంగారు నాణేన్ని,
మరొక
చేతిలో వెండి నాణేన్ని పట్టుకుంటాడు. ‘రెంటిలో ఎక్కువ విలువైనదానిని తీసుకో.’
అంటాడు.
అప్పుడు నేను వెండి నాణేన్ని తీసుకుంటాను. అందరూ గట్టిగా నవ్వుతారు. వారికి వినోదం
కలుగుతుంది. ఈ విధంగా ప్రతి రోజు జరుగుతుంది.”
“అయితే నీవు బంగారు నాణాన్ని ఎందుకు
తీసుకోవు? జన సభలో నన్ను నిన్ను అవమానం పాలు ఎందుకు చేస్తావు?”
అప్పుడు ఆ బాలుడు నవ్వాడు. తండ్రిని చేయి
పట్టుకొని ఇంటి లోపలకు తీసుకొని వెళ్ళాడు. అల్మారాలోని ఒక పెట్టెను తెరిచి
చూపించాడు. దాని నిండా వెండి నాణాలు ఉన్నాయి. అది చూసి పండితుడు చాలా
ఆశ్చర్యపోయాడు.
అప్పుడు అతడి కొడుకు ఇలా ఉన్నాడు- “తండ్రీ, ఏ రోజైతే నేను
బంగారు నాణాన్ని తీసుకుంటానో అప్పుడు ఈ ఆట పూర్తవుతుంది. ఒకవేళ వారు నన్ను
తెలివిలేని వాడిగా భావించి నవ్వితే నవ్వనివ్వండి. నేను వివేకవంతుడిని అని వారికి
చూపిస్తే నాకేంటి లాభం? నేను పండితుడి పుత్రుడిని. అందువల్ల తెలివితో పనిచేస్తాను.
నిజంగా మూర్ఖుడిని అయితే అది వేరు. మూర్ఖుడిగా భావింపబడేది వేరు. బంగారం వంటి
అవకాశం కోసం ఎదురు చూడటం కన్నా ప్రతి అవకాశాన్ని బంగారం లాగా మార్చుకోవటం నయం.”
పండితుడు భగవంతుడిచే మేధస్సును పొందాడు.
దాని యందు అవిశ్వాసం తగదు.
[వాట్సాప్ లో వచ్చిన
ఓ హిందీ సందేశానికి తెలుగు అనువాదం]
एक रोचक प्रसंग
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एक गाँव में एक पंडित रहता
था, उसकी बुद्धि की ख्याति दूर दूर तक फैली थी। एक बार वहाँ
के राजा ने उसे चर्चा पर बुलाया। काफी देर चर्चा के बाद राजा ने कहा – “महाशय, आप बहुत ज्ञानी है, इतने
पढ़े लिखे है पर आपका लड़का इतना मूर्ख क्यों है? उसे भी कुछ
सिखायें। उसे तो सोने चांदी में मूल्यवान क्या है यह भी नहीं पता॥”
यह कहकर राजा जोर से हंस
पड़ा। पंडित को बहुत बुरा लगा। वह घर गया व लड़के से पूछा “सोना
व चांदी में अधिक मूल्यवान क्या है ?”
“सोना”, बिना एक पल भी गवाए उसके लड़के ने उत्तर देते हुए कहा।
“तुम्हारा उत्तर तो ठीक
है, फिर राजा ने ऐसा क्यूं कहा-? और
सभी के बीच मेरी खिल्ली भी उड़ाई।”
लड़के के समझ मे आ गया,
वह बोला “राजा गाँव के पास एक खुला दरबार
लगाते हैं जिसमें सभी प्रतिष्ठित व्यक्ति शामिल होते हैं। यह दरबार मेरे स्कूल
जाने के मार्ग में ही पड़ता है। मुझे देखते ही बुलवा लेते हैं, अपने एक हाथ में सोने का व दूसरे में चांदी का सिक्का रखकर, मझे जो भी अधिक मूल्यवान हो वह उठा लेने को कहते हैं.. और मैं चांदी का
सिक्का उठा लेता हूं। सभी ठहाका लगाकर हंसते हैं व मज़ा लेते हैं। ऐसा तकरीबन हर
दूसरे दिन होता है।”
“फिर तुम सोने का
सिक्का क्यों नहीं उठाते, चार लोगों के बीच अपना अपमान कराते
हो व साथ में मेरी भी होती है?”
लड़का हंसा व हाथ पकड़कर
पिता जी को घर के अंदर ले गया। और कपाट से एक पेटी निकालकर दिखाई जो चांदी के
सिक्कों से भरी हुई थी। यह सब देखकर वो ब्राह्मण हतप्रभ रह गया।
लड़का बोला – “पिताजी, अगर जिस दिन मैंने सोने का सिक्का उठा लिया
तो उस दिन से यह खेल बंद हो जाएगा। वो लोग मुझे मूर्ख समझकर मज़ा लेते हैं तो
उन्हें लेने दें, अगर यदि मैंने अपनी बुद्धिमानी दिखाऊं तो
मुझे कुछ नहीं मिलेगा। मैं एक पंडित का बेटा हूँ अक़्ल से काम लेता हूँ। मूर्ख
होना अलग बात है। और मूर्ख समझा जाना अलग..।” स्वर्णिम मौके
का फायदा उठाने से बेहतर है, हर मौके को स्वर्ण में तब्दील
करना।
विद्वान् को भगवान के द्वारा बुद्धि दि गई है। उसमें अविश्वास नहीं करनी
चाहिए॥
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