Wednesday, 19 July 2017

विचारः-१ - अपि कर्णः सुहृत्??

पूर्वपक्षः-
    
अद्य कश्चन सन्देशः प्रेषितः, यत्र-- कर्णः महान् सुहृदिति, सः निश्चितेऽपि मरणे मित्राय युद्धं कृतवानिति, अतस्तादृशं मित्रं सर्वेषां भवतु इति चोक्तम्।

समाधानम्-
    कर्णवत् ये दुष्टास्तेषां महत्त्वापादनादिकं सनातनधर्मस्य हननकार्यान्तर्गतं क्रियते। एवं दुष्टत्वस्य औन्नत्यापादनेन सामान्यजनाः धर्मस्य साधुतासाधुतानिर्णये भ्रान्ता भवन्ति। अत्र पतनदशा एतादृश्यापतिता यत्र तादृशः कर्णमैत्र्याः महत्त्वप्रतिपादकसन्देशः संस्कृतेऽपि प्रेष्यते। अयं सन्देशः अस्मासु प्रवर्धमानस्य धार्मिकाज्ञानस्य परिचायकः वर्तते।

     कर्णः ‘मित्रधर्मं न पालितवान्’ इति यत् तथ्यम्, त’दामरणं मित्राय अयुध्यदि’ति उक्त्या आच्छादितः।

वस्तुतः मित्रधर्मः कः?
पापान्निवारयति योजयते हिताय
गुह्यं च गूहति गुणान् प्रकटीकरोति ।
आपद्गतं च न जहाति ददाति काले
सन्मित्रलक्षणमिदं प्रवदन्ति सन्तः ॥
        इति प्रख्यातं सुभाषितमस्ति, यत्र सन्मित्रलक्षणं सुष्ठु प्रतिपादितम्। तस्य दृष्ट्या कर्णः मित्रधर्मं पालितवान्न वेति पश्यामः। अनेन कर्णस्य सत्यासत्यं बहिरागच्छति।

सुभाषितस्यार्थः- सन्मित्रं पापाचरणात् स्वमित्रं निवारयति। हितकार्येषु नियोजयति। रहस्यं निगूढं स्थापयति। सद्गुणान् बहिः प्रकटीकरोति । विपत्तौ (पतितं मित्रं मार्गे) न त्यजति। आवश्यकताकाले (अपृष्टोऽपि) ददाति। एतानि सन्मित्रस्य लक्षणानि, इति सज्जना वदन्ति ॥

पापान्निवारयति--
कर्णः दुर्योधनं पापात् न न्यवारयत्, अपि तु तं तस्मै प्रेरितवान्, तस्मिन् प्राक्षिपत् च। स एव द्रौपदीं विवस्त्रां कर्तुमुक्तवान् यदा सा सभायां दासीधर्मविषये जिज्ञासते स्म।

योजयते हिताय--
वस्तुतः पदे पदे यत्र दुर्योधनः शान्त आसीत्, तत्रापि एष एव पाण्डवान् अवमन्तुं, परिभावयितुम्, अवसादयितुं च तं नैकवारं प्रेरितवान्, येन अन्ते दुर्योधनस्य अहितः प्राप्तः।

गुह्यं च गूहति गुणान् प्रकटीकरोति--
(कर्णसन्दर्भे गुणदोषव्यवहारः) कर्णस्य शक्तौ विश्वासं संस्थाप्य एव दुर्योधनः युद्धाय सन्नद्धोऽभवत्। धूर्तः, शठः च कर्णः स्वस्य शापानां विषयमत्यन्तं घनिष्ठं मित्रं दुर्योधनं कदापि नोक्तवान्। (तस्य आयुधाः युद्धसमये अवसरे प्राप्ते उपयोगाय न भवन्तीत्यादिशापाः बहवः तस्यासन्।)

आपद्गतं च न जहाति--
वने गन्धर्वैः दुर्योधने गृहीते सति, एष ततः भीरुरिव पलायितवान्। भारतमहायुद्धे दशदिनानि यावत् अहंकारकारणेन युद्धमपि न कृतवान्।

ददाति काले--
श्रीकृष्णात् स्वस्य कुन्तीपुत्रत्वं ज्ञात्वा, अयाचितमेव राज्यप्राप्तिर्यदा सम्भूता, तदानीं दुर्योधनं राजानं कृत्वा युद्धं निवारयितुं तस्य समीप अवकाश आसीत्। किन्तु पाण्डवेभ्यः मात्सर्यभावपूर्णः स तथा अकृत्वा युद्धायैव प्रयतितवान्।

अतः कः गुणः कर्णे अस्ति, येन सः सुष्ठु सुहृत् इति प्रकीर्तितः? 

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क्या कर्ण मित्र है?
पूर्वपक्षः--
            आज कोयी सन्देश भेजा गया है- जिसमें - कर्ण महान मित्र है, उसने मृत्यु निश्चित होने पर भी युद्ध किया, अतः ऐसा मित्र सभी का हो - ऐसा बताया गया है।
समाधानम्-
            कर्ण के जैसे दुष्ट व्यक्तियों पर महानता का आपादन करना सनातनधर्म के विनाश कार्य के अन्तर्गत किया जा रहा है। इस प्रकार दुष्टता को औन्नत्य के रूप में दिखाने से सामान्य लोग धर्म के साधुता असाधुता विषयमें निर्णय करने में भ्रान्त होजाते हैं। अब पतन दशा ऐसी आगयी है, कि कर्ण की मैत्री को महान कहता हुआ सन्देश (हिन्दी व) संस्कृत में भी भेजा जाने लगा। यह सन्देश हमारे अन्दर प्रबलरूप से बढता हुआ धार्मिक अज्ञान का परिचायक है।
            कर्ण ने किसी मित्रधर्म को पालन नहीं किया- यह तथ्य इस बात के पीछे छुपाया गया है कि उसने मरने तक मित्र के लिये युद्ध किया।
वस्तुतः मित्रधर्म क्या है?
                        पापान्निवारयति योजयते हिताय
                        गुह्यं च गूहति गुणान् प्रकटीकरोति ।
                        आपद्गतं च न जहाति ददाति काले
                        सन्मित्रलक्षणमिदं प्रवदन्ति सन्तः ॥
            यह एक सुभाषित है, जिसमें मित्र के लक्षण अच्छी तरह बताये गये हैं। उस दृष्टि से कर्ण ने मित्रधर्म का पालन किया या नहीं, ये देखते हैं। उससे कर्ण का सारा सच सामने आयेगा।
            सुभाषित का अर्थ- सच्चा मित्र पापाचरण से अपने मित्र को रोकता है। हितकारी कार्यों मे उसे लगाता है। रहस्यों को छुपाकर रखता है। सद्गुणों को प्रकटित करत है। विपत्ति में पड़े मित्र को मध्य मार्ग में नहीं छोड़ता है। आवश्यकता पड़ने पर बिना पूछे देदेता है। ये सब अच्छे मित्र के लक्षण हैं- ऐसा सज्जन कहते हैं।
            पाप से रोकता है-- कर्ण दुर्योधन को पाप से रोका नहीं.. बल्कि उसे पापके लिये प्रेरित किया। उसमें ढकेला। उसने द्रौपदी को वस्त्रहीना करने को कहा, जब वो दासीधर्म के बारे में सभा में जिज्ञासा कर रही थी।
हित में नियोजत करता है-
            वस्तुतः पद पद पर दुर्योधन जब शान्त था, तब भी इसी ने पाण्डवों को अपमानित करने के लिये, उनकी अवहेलना करने के लिये बहुत बार उसे प्रेरेपित किया, जिससे अन्त में दुर्योधन की दुर्गति होगयी।
रहस्य को छुपाता है और गुणों को प्रकट करता है-
            (कर्ण के सन्दर्भ में ) कर्ण की शक्ति पर विश्वास करके ही दुर्योधन युद्ध के लिये सन्नद्ध हुआ था। कर्ण जो धूर्त, और शठ है, अपने शापों के बारे में अपने ही घनिष्ट मित्र को कभी नहीं बताया। (उसके अस्त्र युद्ध में अवसर पड़ने पर काम नहीं आयेंगे- ऐसे उसके कई सारे शाप थे।)
विपत्ति के समय नही छोड़ता है-
            वन में गन्धर्वों द्वारा पकड़े जाने पर वह दुर्योधन को छोड़कर भागगया था। भारत के महायुद्ध में भी दस दिन तक उसने अहंकार वश युद्ध नहीं किया।
सकाल में देता है-
            श्रीकृष्णसे अपने कुन्तीपुत्र होने की बात जानकर, बिना मांगे राज्यप्राप्ति होने पर, तब दुर्योधन राजा बनाकर युद्ध का निवारण कर सकता था - उसके समीप अवसर था। पर पाण्डवों पर मत्सरता के कारण ऐसा न करके युद्ध के लिये ही प्रयत्न किया।  
तो बतायिए अब कर्ण में ऐसा कौन सा गुण है, जिससे वह अच्छा मित्र बताया गया है?

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