Friday 2 August 2019

अनूक्तम्- २५ मन्दिरेषु किं केवलं पाषाणाः दृष्टाः?

अनूक्तम्- २५ - मन्दिरेषु किं केवलं पाषाणाः दृष्टाः?

    कश्चित् तीर्थयात्रां कुर्वन् अयोध्यां गतवान्। सर्वेषु मन्दिरेषु दर्शनादिकं कृत्वा, स कस्यचित् महात्मानः समीपं गतः। सन्दर्भे प्राप्ते स अपृच्छत्-- “महात्मन्, भगवतः दर्शनं कथं प्राप्यते? कुत्र प्राप्यते च?” इति।
    ततः स महात्मा किञ्चिद्रुष्टः इवाभात्। सः न्यगदत्-- “कुतः ते आगमनम्?” इति। यात्री अवदत्-- “मन्दिरेभ्यः, दर्शनं प्राप्य।”
    तदा महात्मा अभणत्-- “मन्दिरेषु किं केवलं पाषाणाः दृष्टाः त्वया? यस्य सेवायै सहस्राधिकानां जनानां जीवनं, धनं, मनः च सम्मग्नं, यस्मै जनाः संसारं चापि परित्यजन्ति, यः बहूनां जीवनसर्वस्वं, प्राणः चास्ति, किं स त्वया केवलं अश्मेति भावितः? तस्य नेत्रयोः पश्य, ज्ञास्यसि मूर्तयः काः इति! तात, ते साक्षात् ईश्वरः एव! केवलं भावदृष्ट्या न, तत्त्वदृष्ट्या अपि! यदि तत्त्वदृष्ट्या सर्वं परमात्मा एव, तर्हि एताः अनुकृतयोऽपि देवः एव, तदन्यत् किं ताः भवेयुः? प्रथमस्थितौ शास्त्राणां, सज्जनानां च भावनाभिः एकस्मिन् स्थाने परमेश्वरः प्रकटितो भवति । एकस्मिन् स्थाने, एकस्मिन् समये, एकस्मिन् वस्तुनि च प्रथमं देवाधिदेवस्य दर्शनं कुरु। तं प्रत्यक्षीकुरु। तदैव सर्वेषु स्थलेषु, सर्वेषु कालेषु सर्वेषु पदार्थेषु च जगदीश्वरस्य स्वरूपमेव भविष्यति। यः ‘सर्वदिक्षु, सर्वत्र लोकेश्वरः अस्ति’, इति कथयति, किन्तु एकस्मिन् स्थाने तं प्रकटीकृत्य दर्शनं न प्राप्नोति, स क्वचिदपि दर्शने सफलः न भविष्यति! अस्मिन् मन्दिरे सर्वेश्वरम् अभिजानीहि। अस्मिन् शब्दरहिते भगवति प्रीतिं कुरु। मूकेन प्रेम एव किल प्रणयिनः अभिज्ञानम्। तत आरभ्य सः अनुक्त्वा न स्थास्यति। यदा एकत्र वदेत्, तदा सर्वत्र वक्ष्यति। मैवं चिन्तय यद् अहं भगवतः दर्शनं कदापि न प्राप्तवान् इति। ईशस्य दर्शनं भवति। तं ज्ञात्वा, मत्वा, अनुभवं च सम्प्राप्य त्वं मुग्धो भव। सर्वेशस्य प्रतिमां शिलेति, गुरुं च मनुष्य इति, प्रसादं च भोग इति यः मनुते स अपराध्यति। त्वं भगवन्तं भगवतः आकृतौ पश्य।”
    महात्मनः उपदेशैः स नितरां सन्तुष्टः अभवत्। अधुना सः निष्ठावान् मूर्तिपूजकः। सः यां मूर्तिं पूजयति, सा तस्मै साक्षात् भगवतः रूपमेवेति दृश्यते॥

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 मंदिरों में केवल पत्थर के ही दर्शन करके आ रहे हो? 
(भक्ति सर्वस्व 7)

    एक सज्जन तीर्थ यात्रा करते हुए अयोध्या पहुंचे। सब मंदिरों में दर्शन आदि करके वे एक महात्मा के पास गए। अवसर पाकर उन्होंने पूछा- “महाराज भगवान के दर्शन कैसे हो? कहां हो?”
    ऐसा मालूम हुआ मानो महात्मा जी कुछ रुष्ट हो गए। उन्होंने कहा, “कहां से आ रहे हो तुम?” यात्री ने कहा- “मंदिरों में दर्शन करके।”
    तो महात्मा ने कहा- “मंदिरों में केवल पत्थर के ही दर्शन करके आ रहे हो? जिन की सेवा के लिए हजार-हजार व्यक्तियों के जीवन धन और मन लग रहे हैं, जिनके लिए लोगों ने संसार का परित्याग कर रखा है, जो बहुतों के जीवन सर्वस्व प्राण है- उन्हें तुम केवल पत्थर समझते हो? उनकी आंखों से देखो तब तुम्हें मालूम होगा कि वह मूर्तियां क्या है! भैया, वे साक्षात भगवान है! केवल भाव दृष्टि से नहीं, तत्त्व दृष्टि से भी! जब तत्त्व दृष्टि से सब भगवान ही है, तब यह मूर्तियां भगवान नहीं तो क्या है?? *पहले शास्त्रों, संत और भावनाओं के द्वारा एक स्थान पर भगवान को प्रकट करना पड़ता है। एक स्थान में, एक समय में, एक वस्तु में पहले भगवान का दर्शन करो।* उन्हें प्रकट करो। फिर तो सब स्थान, सब समय और सभी वस्तुएं भगवत स्वरुप ही होंगी। *जो ‘सब ओर, सर्वत्र भगवान है’, ऐसा कहते हैं, परंतु एक स्थान पर उन्हें प्रकट कर के दर्शन नहीं कर लेते, वह कहीं भी दर्शन करने में सफल नहीं होते!* इस मंदिर से भगवान को पहचानो। इन अनबोले भगवान से प्रीति करो। अनबोलते से प्रेम करने में ही तो प्रेमी रहते की पहचान है। फिर तो वे बोले बिना रहते नहीं। जब एक जगह बोल देते हैं, तो सर्वत्र बोलते हैं। तुम्हें ऐसा कभी नहीं सोचना चाहिए कि मुझे भगवान के दर्शन कभी नहीं हुए। भगवान के दर्शन हो रहे हैं। उन्हें जानकर, मानकर अनुभव करके तुम्हें केवल मुग्ध होना चाहिए। भगवत मूर्ति को पाषाण, गुरु को मनुष्य और प्रसाद को भोग मानना अपराध है। तुम भगवान को भगवान के रूप में देखो।”
    महात्मा जी के उपदेशों से उन्हें बड़ा संतोष हुआ। वे अब सच्चे मूर्तिपूजक हैं। वह जिस मूर्ति की पूजा करते हैं, वह साक्षात उन्हें भगवान के रूप में दिखती है॥

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