अनूक्तम्-३२ भगवद्गीता कुतः पठ्येत? पठनेन किं भवति?
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(अनुवादलेखः)
कश्चित् वृद्धः कृषकः आसीत्। क्षेत्रे युवकेन स्वपौत्रेण सह वसति स्म।
प्रतिदिनं प्रातरुत्थाय स भगवद्गीतां पठति स्म। पौत्राय पितामहस्य कार्याणि
बह्वरोचन्त। सोऽपि भगवद्गीतां पठितुमैच्छत्। किन्तु पठित्वा स किमपि अवगन्तुं न
शक्नोति स्म। अतः पितामहमपृच्छत्- “भोः तात, अहं पुस्तकमधीय समाप्य यदा पार्श्वे न्यस्यामि, तदा
किमपि शिरसि न तिष्ठति। अस्य अर्थावगमने तु अहं नितराम् अशक्तः। तर्हि पठनेन किं
कोऽपि लाभः सिद्ध्येत?” इति।
तदा स जीर्णवयस्कः
तस्मै प्रथमवयसे अङ्गारकाण्डोलं प्रदाय प्रत्युवाच- “एकं
कार्यं कुरु। अङ्गारकण्डोलकेन जलमानय, मह्यं च देहि।”
इति। आमिति उक्त्वा यावत् स कुमारकः तेन पयः आनीय समर्पयेत्,
तस्मात् काण्डालात् वारि सर्वमधः पतति स्म। स पुनः आपः भृत्वा
सवेगम् आनयत्। तदापि मध्ये एव सर्वं पतितम्। अप्कणमपि तस्मिन् न तिष्ठति स्म। स
नववयस्कः अवगन्तुं न पारयति स्म, कथं वेणुनिर्मितः काण्डोलः
नीरभरणाय उपयुक्तः स्यात्? किन्तु ज्येष्ठः ‘श्रद्धया कुरु, मा स्म त्यजः’ इति
वदति। स्थविरस्य वचनेन स पुनः पुनः धावित्वा प्रायतत। तथापि वैफल्यमेव। युवा
आयासेन श्रान्तः कण्डोलं तत्र क्षिप्त्वा उपाविशत्।
अथ जरठः हसन् तत्रागत्य
तरुणं काण्डालकं प्रादर्शयत्। “अधुना पश्य, खनिजाङ्गारैः कृतं कृष्णत्वं सर्वं निर्गतमुत न? शुभ्रं
श्वेतं चाभवत्, यथा नूतनम्” इति उवाच।
सोऽवरजः अवदत्, “किन्तु त्वं तूदकं तेन आपूर्णमानेतुं किलोक्तवान्?
किमनेन धवलत्वेन?” इति।
“सर्वं
तत्रैवास्ति रहस्यम्। त्वमपि एवमेव सलिलानयने मनः निदधासि। गीताश्लोकानामर्थज्ञानं
प्राप्नोमीति, तद्विना पठनं व्यर्थमिति चिन्तयसि। किन्तु यथा
वारं वारमम्बुना संयोगेन तस्मिन् कण्डोले स्वच्छतायाता, तथैव
त्वय्यपि गीताश्लोकसम्पर्चनेन, पठनमात्रेणापि अन्तःशुचित्वं,
मनःशान्तिः च प्राप्यते। तत्र शब्दस्मरणं, बुद्धौ
भावार्थज्ञानस्फुरणं भवेन्न वा, चित्तं तु अवश्यं शुद्ध्यति।
स्वदृष्टौ, विचारदिशायां च क्रमेण परिवर्तनम् आयास्यति।
तद्वयं सपदि साक्षाद् द्रष्टुं न शक्नुमः। तथापि पठनमुपयोगाय एव। अनुभवेन त्वमेतत्
ज्ञास्यसि। प्रारम्भकाले एव, ‘पठनं कुतः, को लाभ’ इत्यादिकं विचिन्त्य सर्वः प्रयास एव व्यर्थ
इति मा भावय।”
पूर्ववयस्कः अनेन
समाधानेन सन्तुष्टः जातः। विमलं भासन्तं काण्डोलं पश्यं पश्यं नन्दति स्म। ‘गीतापठनेन मम अन्तरङ्गं कदा निर्मलं भविष्यती’ति
व्यचिन्तयत्। प्रयत्ने दृष्टिं न्यस्यामीति सङ्कल्पं कृत्वा पितामहचरणौ ववन्द॥
--उषाराणी सङ्का
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भगवद्गीता क्यों पढे? पढ़ने से क्या होता है? 📚
एक बूढ़ा किसान रहता था। वह खेत में अपने जवान पोते के साथ निवास करता था।
हर दिन सुबह उठकर वह गीता पढ़ता था। पोते को दादा के काम बहुत अच्छे लगते थे।
इसीलिए वह भी भगवद्गीता पढ़ना चाहा। पर पढ़ र उसे कुछ समझ में नहीं आया। इसलिए
उसने अपने दादा से कहा- “दादा, मैं
पुस्तक पढ़ना समाप्त करके जैसे ही बगल में रखता हूं, तो कुछ
भी सर में नहीं बचता। इसके अर्थ जानने में तो मैं पूरी तरह अशक्त हूं। तो पढ़ने से
क्या कोई लाभ होगा?”
तब उस बूढ़े ने उस युवक
को कोयले का टोकरा दिया और कहा- “एक काम करो। इस कोयले के
टोकरे से पानी भर लाओ और मुझे दो।” ‘हां’ कहकर वह लड़का उससे पानी लेकर आया तो उस टोकरे से पूरा जल नीचे गिर गया।
वह फिर से पानी भरकर जल्दी-जल्दी ले आया तब भी बीच में ही पूरा गिर गया। एक
जलबिंदु भी उसमे नहीं बचा। वह लड़का समझ नहीं पा रहा था, कैसे
बांस से बना हुआ टोकरा पानी भरने के लिए उपयुक्त होता? पर
बड़े ने कहा- “श्रद्धा के साथ करो बीच में ना त्यागो।”
बूढ़े की बात से वह पुनः पुनः दौड़कर प्रयत्न करने लगा। फिर भी विफल
हुआ। लड़का थक कर टोकरी वहीं पर फेंक कर बैठ गया।
तब बूढ़े ने हंसते हुए
आकर लड़के को टोकरा दिखाया, और कहा- “अभी
देखो, कोयले का द्वारा किया गया कालापन सब निकल गया कि नहीं?
सफेद, साफ हो गया जैसा नया।”
तब लड़के ने कहा- “पर तुम ने तो पानी भर कर लाने को कहा था ना? साफ हुआ,
इससे क्या मतलब है?”
बूढ़े ने कहा- “सारा रहस्य वहीं पर तो है। तुम भी इसी प्रकार पानी लाने में मन लगाते हो।
सोचते हो कि गीता श्लोक अर्थ का अर्थ ज्ञान पाऊंगा, उसके
बिना पढ़ाना व्यर्थ है। पर जिस प्रकार बार-बार पानी के संपर्क होने से उस टोकरी
में स्वच्छता आई, उसी प्रकार तुम्हारे अंदर भी गीता श्लोक के
संयोग से पठन मात्र से अंदर की शुचिता, मन की शांति मिलेंगे।
वहां शब्द याद हो या नहीं, बुद्धि में भावार्थ का ज्ञान हो
या नहीं, मन तो अवश्य शुद्ध होगा। अपनी दृष्टि में, विचार दिशा में धीरे-धीरे परिवर्तन आता है। वह हम जल्दी से साक्षात् देख
नहीं सकते। फिर भी पढ़ना उपयोगी होगा। अनुभव से तुम इस बात को जानोगे। प्रारंभ में
ही ‘पढ़ने से क्या लाभ?’ यह सब सोचकर
इस प्रयास को व्यर्थ ना समझो।”
तब वह लड़का उस समाधान
से संतुष्ट हुआ। स्वच्छ दिख रहे टोकरी को देख देख कर खुश हुआ। ‘गीता पठन से मेरा मन कब निर्मल होगा?’ यह सोचने लगा
और प्रयत्न पर ही दृष्टि रखूंगा- ऐसी संकल्प कर के दादा का चरण छुआ॥
[वाट्साप् पर प्राप्त किसी तेलुगु सन्देश का स्वतन्त्रानुवाद]
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భగవద్గీతను ఎందుకు
చదవాలి? చదువుతే ఏమవుతుంది? 📚
ఒక వృద్ధుడైన రైతు
ఉండేవాడు. పొలంలో యువకుడైన తన మనవడితో కలిసి నివసించేవాడు. ప్రతిరోజు ఉదయాన్నే
లేచి అతడు భగవద్గీతను చదువుతుండేవాడు. మనవడికి తాత పనులంటే చాలా ఇష్టం. అతడు కూడా
భగవద్గీతను చదువుదాం అనుకున్నాడు. కానీ చదివితే ఏమీ అర్థం కాలేదు. అందువల్ల అతను
అడిగాడు- “తాతా, నేను పుస్తకం చదవటం పూర్తి చేసి పక్కన పెట్టేయంగానే నా తలలో
ఏమీ నిలవటం లేదు. దీని అర్థం తెలుసుకోవటంలో నేను అశక్తుడిని. అయితే ఇక చదివి ఏమి
లాభం కలుగుతుంది?” అని.
అప్పుడు ఆ పెద్దాయన
అతడికి ఆ యువకుడికి ఓ బొగ్గుల బుట్ట ఇచ్చి అన్నాడు- “ఒక పని చెయ్యి. ఈ బొగ్గుల బుట్ట తోటి నీరు తీసుకొని రా.
నాకు ఇవ్వు.” అన్నాడు. సరేనని ఆ యువకుడు
దానితో నీరు తెచ్చి ఇవ్వబోయేలోపల బుట్టలో నీరంతా కింద పడిపోతూ ఉండేది. అతడు మళ్ళీ
నీరు నింపి వేగంగా తెచ్చాడు. అదంతా మధ్యలో కిందనే పడిపోయింది. ఒక్క నీటి బిందువు
కూడా నిలవటం లేదు. ఆ యువకుడికి అర్థం కాలేదు,
వెదురు
బుట్ట నీరు నింపి తెచ్చేందుకు ఉపయుక్తమైనదా?
కానీ
పెద్దాయన ‘శ్రద్ధతో చెయ్యి వదిలి పెట్టకు’ అని అంటున్నాడు. ముసలాయన మాటలతో మళ్ళీ మళ్ళీ పరిగెత్తి
ప్రయత్నించాడు. అప్పటికి వైఫల్యమే కలిగింది. యువకుడు ఆయాసంతో అలిసిపోయి బుట్టను
అక్కడ పడేసి కూర్చున్నాడు.
అప్పుడు పెద్దాయన
నవ్వుతూ అక్కడకు వచ్చి ఆ పిల్లవాడికి బుట్టను చూపించాడు. “ఇప్పుడు చూడు బొగ్గులతో వచ్చిన నల్లదనం అంతా పోయిందా లేదా? శుభ్రంగా, తెల్లగా కొత్తదానిలా
అయింది..” అని అన్నాడు. ఆ పిల్లవాడు
అన్నాడు కదా- “కానీ నువ్వు నీరు తీసుకుని
నింపమని కదా అన్నావు. తెల్లదనం తోటి మనకేంటి సంబంధం?”
అప్పుడు పెద్దాయన- “అక్కడే రహస్యమంతా ఉంది. నువ్వు కూడా ఇట్లాగే నీరు
తీసుకురావటంలో మనసు పెడుతున్నావు. ‘గీతా శ్లోకాలు అర్థం
చేసుకుంటాను, అది లేకుండా చదవటం వృథా’ అని అనుకుంటున్నావు. కానీ మాటిమాటికి నీరు తగలటం వల్ల ఆ
బుట్టలో వచ్చినట్లే నీలో కూడా గీతాశ్లోకాలతో సంపర్కం కలిగినంత మాత్రం చేత లోపలశుచి, మనశ్శాంతీ కలుగుతాయి. పదాలు గుర్తుండటం, అర్థం జ్ఞానం కలుగుతాయో లేదో కానీ మనసు మాత్రం తప్పకుండా
శుద్ధమవుతుంది. మన దృష్టిలో, ఆలోచనాదిశలో క్రమంగా
పరివర్తనం వస్తుంది. అవి మనం నేరుగా, వెంటనే చూడలేము. అయినా
పఠనం తప్పక ఉపయోగపడుతుంది. అనుభవంతో ఇది నీవు తెలుసుకుంటావు. ప్రారంభంలోనే ‘చదవటం ఎందుకు ఏం లాభం?’
అనేది
ఆలోచిస్తూ ఈ ప్రయాస అంతా వ్యర్థమని అనుకోకు.”
అన్నాడు.
యువకుడు ఈ సమాధానంతో సంతుష్టి
చెందాడు. నిర్మలంగా కనిపిస్తున్న బుట్టను చూసి చూసి ఆనందించాడు. ‘నా అంతరంగం ఎప్పుడు నిర్మలంగా అవుతుందో’ అని ఆలోచించాడు. ప్రయత్నం పై దృష్టిని పెడతాను అని సంకల్పం
చేసుకుని తాత పాదాలకు దండం పెట్టాడు.
[వాట్సాప్ లో ప్రాప్తమైన లేఖకు స్వీయ కథనం]