Wednesday 1 September 2021

॥सर्वस्वं तस्य पुस्तकम्॥ उसका सर्वस्व पुस्तक ही है

नमस्ते

 अखिलभारतसंस्कृतकविसम्मेलनम् के अन्तर्गत पढी हुई मेरी कविता मेरे द्वारा किये गये हिन्दी अनुवाद के साथ प्रस्तुत है।

॥सर्वस्वं तस्य पुस्तकम्॥ उसका सर्वस्व पुस्तक ही है
 

पुस्तकपठनं, तत्प्रयोजनानि
पुस्तक पढ़नेवाला एवं उसके प्रयोजन व लाभ
प्रथमस्तावत् तदनुबद्ध-पुस्तकपठितृ-लक्षणविचारः
पहले उसके लक्षणों का विचार


मौनी ग्रन्थैकदृष्टिश्च सदा प्रणतमस्तकः।
आत्मारामः स एकाकी स्वाध्यायनिरतस्सदा॥1
वह मौन रहता है। केवल पुस्तक पर उसकी दृष्टि रहती है। सदैव उसका सर झुका रहता है। वह अपने आप में आनंदित रहता है। अकेले अध्ययन करता रहता है।

नित्यस्वान्तमयत्वं च बाह्यलोकस्य विस्मृतिः।
पुस्तके प्रीतिभावश्च ममत्वं परमोन्नतम्॥2
हमेशा अपने ही अंदर समाया रहता है। बाहर के दुनिया को भूल जाता है। पुस्तक में उसकी बहुत प्रीति रहती है। और अपनापन अत्यधिक रहता है।


परमव्याकुलीभावः क्षणकालव्ययेन वा।
पुस्तकाध्ययने नन्देत् रिक्तहस्तः स खिद्यते॥3
बहुत ही व्याकुल हो जाता है जब एक पल भी व्यर्थ होता है। पुस्तक अध्ययन में आनंदित रहता है। ‌ और जब उसके हाथ पुस्तक के बिना खाली रहते हैं तो बड़ा दुखी होता है।

शान्तस्थानाय चान्विष्येत् गम्भीरवदनः सदा।
अनुकूलौ देशकालौ मार्गयन् भ्रमतीह वै॥4
बहुत गंभीर मुख होकर शांतस्थान के लिये अन्वेषण करता रहता है। अनुकूल प्रदेश और समय के लिए ढूंढता हुआ यहां वहां फिरता रहता है।

प्रातः सायं च मध्याह्नं चक्षुषी तस्य पुस्तके।
शब्दाश्वारोहके भूत्वा ते च तस्मिन् हि धावतः॥5
सुबह शाम और दोपहर को उसकी आंखें पुस्तक पर ही टिकी रहती हैं। शब्द नाम के घोड़े पर चढ़कर उन्हीं पर (उसकी आंखें) दौड़ती रहती हैं।

गेहे कार्यालये याने नदीतीरे वने रणे।
गच्छन् स्वपन् श्वसन् खादन् तिष्ठन्नुपविशन्नपि ॥6
घर में, कार्यालय में, गाड़ी में, नदी के किनारे, जंगल में, युद्ध में, जाते हुए, सोते हुए, श्वास लेते हुए, खाते हुए, खड़े होकर बैठ कर भी..

आतपः शीतता वृष्टिर्हिमपातोपि वा भवेत्।
दम्भोलिर्पततान्नाम पुस्तकैके हि मस्तकम् ॥7
गर्मी हो या ठंड, बारिश हो या हिमपात, चाहे बिजली ही क्यों ना गिरे, उसका सर पुस्तक में ही रहता है।

मुद्रितं स्पर्शयोग्यं वा ऐपाड् वा किन्डलेव वा।
यत्किञ्चिदपि तद्भूयात् केवलं पुस्तकं भवेत्॥8
चाहे वह छूने लायक मुद्रित पुस्तक हो, या आईपैड या किंडल हो, जो कुछ भी हो बस वह पुस्तक हो।

पुस्तकं मन्यते श्रेष्ठं पत्न्या अपि धनादपि ।
मित्रबान्धवपुत्राश्च कलां नार्हन्ति षोडशीम्॥9
पुस्तक को पत्नी से भी, धन से भी श्रेष्ठ मानता है। मित्र बंधु बच्चे उसकी रत्ती भर भी समानता नहीं पाते हैं।

पुस्तकं मम हस्तेस्तु पुस्तकं पूजये मुदा।
पुस्तकेनैव जागर्मि पुस्तकायैव जीवनम्॥10
पुस्तकादेव मत्प्राणाः पुस्तकस्यातिराधकः।(fan अतिराधकः)
पुस्तके मस्तकं मेस्तु त्वमेवाहं हि पुस्तक ॥11
इति स्तोत्रं ह्यनुनित्यं पठति श्रद्धयान्वितः।
प्राणेपि च गतप्राये ग्रन्थं संस्पृश्य जीवति ॥12
पुस्तक मेरे हाथ में हो। मैं पुस्तक को आनंदित होकर पूजन करता हूं। पुस्तक के साथ ही (नींद से) उठता हूं। पुस्तक के लिए ही जीता हूं। पुस्तक से ही मेरे प्राण चलते हैं। पुस्तक का मैं बहुत बड़ा आराधक (fanatic)हूं। पुस्तक में ही मेरा मस्तक रहे। हे पुस्तक तुम ही मैं हूं।
ऐसा स्तोत्र वह सदैव श्रद्धा युक्त होकर पड़ता है। उसके प्राण निकलने वाले होते हुए भी पुस्तक को छूकर वाह जी लेता है।

शब्दा भावा हि संसारः वाक्यान्येव हि विश्वकृत्।
पदेनार्थाः पदेभ्योर्थः पदार्थाभ्यां स जीवति॥13
शब्द भाव उसका संसार है। वाक्य की उसके लिए ब्रह्मा है। एक पद से अनेक अर्थ, अनेक पदों से एक अर्थ, पद और अर्थ के द्वारा ही वह जीवित रहता है।

मन्यते पुस्तकं स्वस्य ह्येकैकं सुहृदम्महत्।
पुस्तके च पुनः प्राप्ते क्व चान्नं क्व च वै रसः॥14
एक पुस्तक को ही अपना अकेला महान मित्र समझता है। पुस्तक एक बार मिल जाए तो क्या अन्न और कहाँ पानी?

यावन्तः सन्ति विश्वेस्मिन् ग्रन्थागाराः सुदुर्लभाः।
वाञ्छत्ययं तु सर्वत्र निरङ्कुशसदस्यताम् ॥15
इस संसार में जितने भी दुर्लभ से दुर्लभ ग्रंथालय हो, वह उन सब में निरंकुश सदस्यता को चाहता है।

अधुना पठितुः गार्ह-सामाज-आध्यात्मिक-प्रयोजनानि
अभी हम पढ़ने वाले के घर से संबंधित सामाजिक आध्यात्मिक प्रयोजनों को देखेंगे।

आत्मनः-
रसनायां जयः प्राप्तः बाह्यभुक्तिव्ययो न च।
स्वास्थ्यं सुरक्षितं तिष्ठेत् चिकित्सकव्ययो न च॥16
पढ़ने वाले ने जीभ पर विजय को प्राप्त कर लिया है। अतः वह बाहर भोजन के लिये खर्चा नहीं करता। उसकी स्वास्थ्य सुरक्षित रहती है अतः चिकित्सक की खर्चा भी नहीं रहती है।

पिपासा वा बुभुक्षा वा तावद्यावन्न पुस्तकम्।
विलासभोजनायेप्सा विविधान्नस्पृहा न वा ॥17
(भोजनालये उपाहारालयादिषु)
प्यास व भूख तभी तक रहता है जब तक पुस्तक ना हो। ‌ विलास भोजन की इच्छा नहीं रहती है और ना ही तरह तरह के खाने में इच्छा।

गार्हम्-
रात्रौ लोकः मग्ननिद्रो तदा जागर्ति पाठकः।
शुनकाय व्ययो नास्ति चोरो नायाति तद्गृहम् ॥18
अब घर से संबंधित प्रयोजन
रात को दुनिया सो जाती है तब पढ़ने वाला जागता है। कुत्ते को पालने का खर्चा नहीं है और चोर उसके घर में नहीं आता है।

पत्न्यस्मान्न बिभेत्यन्ने लावण्याद्यसमस्थितौ ।
स्थाल्यां यद्दीयते मौनं खादत्यक्षरखादनैः॥
गृहे च सर्वदा शान्तिः कलहस्य भयो न च॥19
खाने में नमक इत्यादि का सही मात्रा में होने ना होने के विषय में पत्नी उस से नहीं डरती है। थाली में जो दिया जाता है वह चुप से खा लेता है,‌ अक्षर नाम के अन्न के साथ।

सामाजम्-
नाधिकं भाषते चान्यैः सोदरैर्मित्रबान्धवैः।
मिथ्यावाचो भयं नास्ति चरवाण्या व्ययो न च॥20
सामाजिक प्रयोजन
भाइयों से, दोस्तों से, बंधुओं से वह ज्यादा बात नहीं करता है। झूठ बोलने का डर नहीं रहता है। और चल वाणी की खर्चा भी नहीं रहती है।

भीत्या पुस्तकचर्चायाः गृहं नायाति कश्चन।
न व्ययोतिथिसत्कारैरल्पाहारैश्च पानकैः॥21
पुस्तकों की चर्चा के डर के मारे कोई उसके घर पर नहीं आता। इसीलिए अतिथि सत्कार भोजन पान आदि की खर्चा भी नहीं रहता है।

विनोदस्यास्पदत्वाद्धि पुस्तकस्यैव सर्वधा ।
विहारयात्रादीनामपि नास्ति व्ययो मुधा॥22
हमेशा ही पुस्तक एकमात्र टाइमपास का स्थान होने के कारण, बाहार यात्रा इत्यादि की भी खर्चा नहीं रहती है।

नरस्याभरणत्वाच्च पुस्तकस्यैव सर्वथा।
प्रसाधने ह्यलङ्कारे भूषणेषु व्ययो न च॥23
मनुष्य का आभूषण पुस्तक मात्र के होने से सजने धजने में और अलंकार आदि का खर्चा भी नहीं रहता है।

आध्यात्मिकम्-
भीत्रार्थभयहेतुर्न पञ्चमी न भयेन वा।
अभयं जीवलोकाय दत्त्वा चरति निःस्पृहः॥24
अब आध्यात्मिक प्रयोजन
भय हेतु पंचमी (विभक्ति)नहीं रहती है। वह पूर्ण जीव लोक के लिए अभय दान देकर जीता है।

सर्वावस्थासु देशेषु कालेषु च महीतले।
आकाङ्क्षतीदमेवायं तेन जीवामि च म्रिये॥25
सभी अवस्थाओं में देश कालों में भूतल पर वह यही चाहता है कि- पुस्तक के साथ ही जियूँ एवं मरूँ।

जानामि न तपो योगं ध्यानं मन्त्रं न साधनाम्।
ग्रन्थपारायणं नित्यं यावज्जीवामि भूतले॥26
मैं कोई तपस्या, योग, ध्यान, मंत्र, साधना नहीं जानता हूं। पर जब तक इस दुनिया में जीवित रहूंगा तब तक पुस्तक का पारायण करूंगा।

इतिहासपुराणानि सत्काव्यानि पठामि च।
मननं च करिष्यामि तेषामर्थान् सदा मुदा॥27
इतिहास पुराण अच्छे-अच्छे काव्य पढ़ लूंगा। और उनके अर्थों को मनन करूंगा।

यत्र गेहे ग्रन्थधानी सा काशीति स मन्यते।
अध्येयानां च ग्रन्थानां दीर्घा सूची च निर्मिता॥28
जहां पर घर में पुस्तक रखने की रैक है वही काशी है ऐसा वह मानता है। पढ़ने के लिए ग्रंथों की दीर्घ सूची उसने तैयार कर ली है।

यदि मृत्युर्घटेत प्रागवशिष्टेषु तेष्विह।
पुनर्मानवजन्मेच्छा तेषामध्ययनाय हि॥29
यदि उनमें से पढ़ने वाले पुस्तक बच जाने पर उसकी मृत्यु हो जाती है तो वह उनके अध्ययन हेतु पुनः जीवन प्राप्त करना चाहता है।

शब्दाह्वयेन दीपेनैवं काशयति स्वयम्।
लोकान् काशयते यस्स पठिता जयतात् भुवि ॥30
शब्द नाम के दीपक से वह स्वयं को प्रकाशित करता है। और पूरे लोक को भी प्रकाशित करता है। ऐसे पढनेवाले की जय हो।

  https://youtu.be/hJiqWGjj8OI?t=11465
अखिलभारतसंस्कृतकविसम्मेळनम्

॥सर्वस्वं तस्य पुस्तकम्॥ అతడికి పుస్తకమే సర్వస్వం

నమస్కారం

అఖిలభారతసంస్కృతకవిసమ్మేళనంలో భాగంగా చదివిన నా కవిత నేను చేసిన తెలుగు అనువాదంతో ఇక్కడ పొందుపరచటమైనది.

॥सर्वस्वं तस्य पुस्तकम्॥ అతడికి పుస్తకమే సర్వస్వం

पुस्तकपठनं, तत्प्रयोजनानि
పుస్తక పఠనం, దాని ప్రయోజనాలు
प्रथमस्तावत् तदनुबद्ध-पुस्तकपठितृ-लक्षणविचारः

మొదలు పాఠకుని లక్షణాల విచారణం

मौनी ग्रन्थैकदृष्टिश्च सदा प्रणतमस्तकः।
आत्मारामः स एकाकी स्वाध्यायनिरतस्सदा॥1
అతను మౌనంగా ఉంటాడు. అతని కళ్ళు పుస్తకం మీద మాత్రమే ఉంటాయి. అతని తల ఎప్పుడూ వంగి ఉంటుంది. అతను తనలో తాను ఆనందిస్తాడు. అతను ఒంటరిగా చదువుతూంటాడు.

नित्यस्वान्तमयत्वं च बाह्यलोकस्य विस्मृतिः।
पुस्तके प्रीतिभावश्च ममत्वं परमोन्नतम्॥2
ఎల్లప్పుడూ తనలో ఇమిడి ఉంటాడు. బాహ్య ప్రపంచాన్ని మర్చిపోతాడు. అతనికి పుస్తకం మీద చాలా ప్రేమ ఉంటుంది. మరియు పుస్తకం పట్ల మమత్వం అపారమైనది.

परमव्याकुलीभावः क्षणकालव्ययेन वा।
पुस्तकाध्ययने नन्देत् रिक्तहस्तः स खिद्यते॥3
ఒక క్షణం కూడా వృధా అయితే అతను చాలా కలత చెందుతాడు. పుస్తకాలు చదవడంలోనే ఆనందిస్తాడు. పుస్తకం లేకుండా అతని చేతులు ఖాళీగా ఉన్నప్పుడు, అతను చాలా విచారంగా ఉంటాడు.

शान्तस्थानाय चान्विष्येत् गम्भीरवदनः सदा।
अनुकूलौ देशकालौ मार्गयन् भ्रमतीह वै॥4
ప్రశాంతంగా ఉండే ప్రదేశం కోసం అతను చాలా గంభీరవదనుడై వెతుకుతూ ఉంటాడు. అతను అనుకూలమైన ప్రాంతం మరియు సమయాన్ని వెతుకుతూ అక్కడక్కడా తిరుగుతూ ఉంటాడు.

प्रातः सायं च मध्याह्नं चक्षुषी तस्य पुस्तके।
शब्दाश्वारोहके भूत्वा ते च तस्मिन् हि धावतः॥5
ఉదయం, సాయంత్రం మరియు మధ్యాహ్నం, అతని కళ్ళు పుస్తకం మీద ఉంటాయి. శబ్దం అనే గుర్రంపైకి ఎక్కి అతని కన్నులు వాటిపై పరుగెత్తుతూనే ఉంటాయి.

गेहे कार्यालये याने नदीतीरे वने रणे।
गच्छन् स्वपन् श्वसन् खादन् तिष्ठन्नुपविशन्नपि ॥6
ఇంట్లో, కార్యాలయంలో, నది ఒడ్డున నది ఒడ్డున, అడవిలో, నడుస్తూ, నిద్రపోతున్నప్పుడు, తినేటప్పుడు శ్వాస తీసుకుంటూ, నిలబడి, కూర్చున్నప్పుడు కూడా..

आतपः शीतता वृष्टिर्हिमपातोपि वा भवेत्।
दम्भोलिर्पततान्नाम पुस्तकैके हि मस्तकम् ॥7
వేడిగా ఉన్నా, చలిగా ఉన్నా, వర్షం లేక మంచు ఉన్నా, పిడుగులు పడినా, అతని తల పుస్తకంలోనే ఉంటుంది.

मुद्रितं स्पर्शयोग्यं वा ऐपाड् वा किन्डलेव वा।
यत्किञ्चिदपि तद्भूयात् केवलं पुस्तकं भवेत्॥8
అది ముట్టుకోగలిగిన ముద్రిత పుస్తకం అయినా, ఐప్యాడ్ అయినా, కిండిల్ అయినా సరే, పుస్తకం అయితే చాలు.

पुस्तकं मन्यते श्रेष्ठं पत्न्या अपि धनादपि ।
मित्रबान्धवपुत्राश्च कलां नार्हन्ति षोडशीम्॥9
అతను భార్యకంటే, సంపద కంటే గొప్పగా పుస్తకాన్ని భావిస్తాడు. స్నేహితులు, బంధువులు, పిల్లలు అతనికి పుస్తకం విలువలో పదహారో వంతు కూడా చేయరు.

पुस्तकं मम हस्तेस्तु पुस्तकं पूजये मुदा।
पुस्तकेनैव जागर्मि पुस्तकायैव जीवनम्॥10
पुस्तकादेव मत्प्राणाः पुस्तकस्यातिराधकः।(fan अतिराधकः)
पुस्तके मस्तकं मेस्तु त्वमेवाहं हि पुस्तक ॥11
इति स्तोत्रं ह्यनुनित्यं पठति श्रद्धयान्वितः।
प्राणेपि च गतप्राये ग्रन्थं संस्पृश्य जीवति ॥12
నా చేతిలో పుస్తకం ఉండుగాక. నేను ఆనందంతో పుస్తకాన్ని ఆరాధిస్తాను. నేను పుస్తకంతోపాటే (నిద్ర) లేస్తాను. నేను పుస్తకం కోసం జీవిస్తున్నాను. నా జీవితం పుస్తకం నుండే వస్తుంది. నేను పుస్తకానికి పెద్ద అభిమానిని. పుస్తకంలోనే నా తల ఉండుగాక. ఓ పుస్తకమా, నువ్వే నేను.
అతను ఎల్లప్పుడూ అటువంటి శ్లోకాలను భక్తితో చదువుతాడు. అతని ప్రాణాలు వీడి పోబోతున్నప్పటికీ, అతను పుస్తకాన్ని తాకి లేచి జీవిస్తాడు.


शब्दा भावा हि संसारः वाक्यान्येव हि विश्वकृत्।
पदेनार्थाः पदेभ्योर्थः पदार्थाभ्यां स जीवति॥13
మాటలే అతని ప్రపంచం. అతనికి వాక్యమే బ్రహ్మ. ఒక పదం నుండి అనేక అర్థాలు, అనేక పదాల నుండి ఒక అర్థం, పదాలు మరియు అర్థాల ద్వారా మాత్రమే అతను జీవించేది.

मन्यते पुस्तकं स्वस्य ह्येकैकं सुहृदम्महत्।
पुस्तके च पुनः प्राप्ते क्व चान्नं क्व च वै रसः॥14
అతను పుస్తకాన్ని తన ఏకైక స్నేహితుడుగా భావిస్తాడు. పుస్తకం దొరికిన తర్వాత, ఇంకా అన్నం ఏముంది, నీరు ఎక్కడుంది?

यावन्तः सन्ति विश्वेस्मिन् ग्रन्थागाराः सुदुर्लभाः।
वाञ्छत्ययं तु सर्वत्र निरङ्कुशसदस्यताम् ॥15
ఈ ప్రపంచంలో అన్ని అరుదైన గ్రంథాలయాలలో అన్నింటిలో అతను నిరంకుశ సభ్యత్వాన్ని కోరుకుంటున్నాడు.


अधुना पठितुः गार्ह-सामाज-आध्यात्मिक-प्रयोजनानि
ఇప్పుడు మనం పాఠకుని ఇంటికి సంబంధించిన సామాజిక-ఆధ్యాత్మిక ప్రయోజనాలను పరిశీలిస్తాము.

आत्मनः-
रसनायां जयः प्राप्तः बाह्यभुक्तिव्ययो न च।
स्वास्थ्यं सुरक्षितं तिष्ठेत् चिकित्सकव्ययो न च॥16
పాఠకుడు నాలుకపై విజయం సాధించాడు. అతను బయటకి వచ్చి ఆహారం ఖర్చును భరించడు. అతని ఆరోగ్యం సురక్షితంగా ఉంది, కాబట్టి వైద్యుడికై ఎటువంటి ఖర్చు ఉండదు.

पिपासा वा बुभुक्षा वा तावद्यावन्न पुस्तकम्।
विलासभोजनायेप्सा विविधान्नस्पृहा न वा ॥17
(भोजनालये उपाहारालयादिषु)
పుస్తకం లేనంత వరకు మాత్రమే దాహం మరియు ఆకలి ఉంటుంది. విలాసవంతమైన ఆహారం కోసం కోరిక లేదు, లేదా వివిధ రకాల ఆహారాల పట్ల కోరిక లేదు.

गार्हम्-
रात्रौ लोकः मग्ननिद्रो तदा जागर्ति पाठकः।
शुनकाय व्ययो नास्ति चोरो नायाति तद्गृहम् ॥18
ఇప్పుడు ఇంటికి సంబంధించిన ప్రయోజనాలు
ప్రపంచం రాత్రి నిద్రపోతున్నప్పుడు, పాఠకుడు మేల్కొంటాడు. కుక్కను ఉంచడానికి ఖర్చు లేదు. దొంగ అతని ఇంట్లోకి ప్రవేశించడు.

पत्न्यस्मान्न बिभेत्यन्ने लावण्याद्यसमस्थितौ ।
स्थाल्यां यद्दीयते मौनं खादत्यक्षरखादनैः॥
गृहे च सर्वदा शान्तिः कलहस्य भयो न च॥19
ఆహారంలో సరైన మొత్తంలో ఉప్పు మొదలైనవి లేవేమోనని భార్య అతనికి భయపడదు. అతను కచంలో పెట్టినదాన్ని నిశ్శబ్దంగా తింటాడు, అక్షరాలనే మెతుకులతో.

सामाजम्-
नाधिकं भाषते चान्यैः सोदरैर्मित्रबान्धवैः।
मिथ्यावाचो भयं नास्ति चरवाण्या व्ययो न च॥20
సామాజిక ప్రయోజనం
అతను తన సోదరులు, తన స్నేహితులతో, బంధువులతో ఎక్కువగా మాట్లాడడు. అబద్ధం చెప్తాడేమోననే భయం లేదు. చలవాణి ఖర్చు లేదు.

भीत्या पुस्तकचर्चायाः गृहं नायाति कश्चन।
न व्ययोतिथिसत्कारैरल्पाहारैश्च पानकैः॥21
పుస్తకాల గురించి చర్చించడానికి భయపడి ఎవరూ అతని ఇంటికి రారు. అందుకే ఆతిథ్యం, ​​అల్పాహారం, పానీయాలు మొదలైన వాటికి ఎట్లాంటి ఖర్చు ఉండదు.

विनोदस्यास्पदत्वाद्धि पुस्तकस्यैव सर्वधा ।
विहारयात्रादीनामपि नास्ति व्ययो मुधा॥22
పుస్తకం ఎల్లప్పుడూ కాలక్షేపానికి ఏకైక సాధనం కాబట్టి విహారాలు మొదలైన వాటికి ప్రయాణ ఖర్చు ఉండదు.

नरस्याभरणत्वाच्च पुस्तकस्यैव सर्वथा।
प्रसाधने ह्यलङ्कारे भूषणेषु व्ययो न च॥23
మానవుని ఆభరణాలు కేవలం పుస్తకాలే అయి ఉండటం వల్ల, ఆభరణాలను అలంకరించడానికి, ధరించడానికి ఎటువంటి ఖర్చు ఉండదు.

आध्यात्मिकम्-
भीत्रार्थभयहेतुर्न पञ्चमी न भयेन वा।
अभयं जीवलोकाय दत्त्वा चरति निःस्पृहः॥24
ఇప్పుడు ఆధ్యాత్మిక ప్రయోజనం
భయహేతువైన పంచమీ విభక్తి లేదు. అతను మొత్తం జీవుల కొరకు అభయ దానమిచ్చి జీవిస్తాడు.

सर्वावस्थासु देशेषु कालेषु च महीतले।
आकाङ्क्षतीदमेवायं तेन जीवामि च म्रिये॥25
ప్రపంచంలోని అన్ని రాష్ట్రాలలో, భూమిపై అతను కోరుకుంటాడు- నేను పుస్తకంతో జీవించి, పుస్తకంతో చనిపోవాలని.

जानामि न तपो योगं ध्यानं मन्त्रं न साधनाम्।
ग्रन्थपारायणं नित्यं यावज्जीवामि भूतले॥26
నాకు ఎలాంటి కఠినమైన తపస్సు, యోగం, ధ్యానం, మంత్రం, సాధనా తెలియవు. కానీ ఈ ప్రపంచంలో జీవించినంత కాలం, నేను పుస్తకాన్ని పఠిస్తాను

इतिहासपुराणानि सत्काव्यानि पठामि च।
मननं च करिष्यामि तेषामर्थान् सदा मुदा॥27
నేను చరిత్ర పురాణాలు మరియు మంచి కవిత్వం చదువుతాను. మరియు నేను వాటి అర్థాలను ధ్యానిస్తాను.

यत्र गेहे ग्रन्थधानी सा काशीति स मन्यते।
अध्येयानां च ग्रन्थानां दीर्घा सूची च निर्मिता॥28
ఇంట్లో పుస్తకాలు ఉంచే చోట, అది కాశీ అని అతను నమ్ముతాడు. అతను చదవడానికి పుస్తకాల పెద్దజాబితాను సిద్ధం చేసుకుంటాడు.

यदि मृत्युर्घटेत प्रागवशिष्टेषु तेष्विह।
पुनर्मानवजन्मेच्छा तेषामध्ययनाय हि॥29
అతను వాటిలో చదవవలసిన పుస్తకాలు మిగిలిఉండగా మరణిస్తే, వాటిని చదివేందుకు కోసం తిరిగి జన్మను పొందాలనుకుంటాడు.

शब्दाह्वयेन दीपेनैवं काशयति स्वयम्।
लोकान् काशयते यस्स पठिता जयतात् भुवि ॥30
అతను తనను తాను శబ్దం అనే దీపంతో ప్రకాశింపచేసుకుంటాడు. మొత్తం లోకాలను ప్రకాశింపచేస్తాడు. అటువంటి పాఠకుడు జయించుగాక.

 

https://youtu.be/hJiqWGjj8OI?t=11465
अखिलभारतसंस्कृतकविसम्मेळनम्

॥सर्वस्वं तस्य पुस्तकम्॥ His everything is a book

 Namaste

This is the poem which I read in the  अखिलभारतसंस्कृतकविसम्मेलनम् (The All-India Samskrta Poets Meet) that was conducted on 25th August 2021. I added the English meaning for easy understanding.

॥सर्वस्वं तस्य पुस्तकम्॥ His everything is a book

पुस्तकपठनं, तत्प्रयोजनानि
Book Reading and its advantages
प्रथमस्तावत् तदनुबद्ध-पुस्तकपठितृ-लक्षणविचारः

First of all the characteristics of a Book-Reader 


मौनी ग्रन्थैकदृष्टिश्च सदा प्रणतमस्तकः।
आत्मारामः स एकाकी स्वाध्यायनिरतस्सदा॥1
He remains silent. His eyes are only on the book. His head is always bowed. He rejoices in himself. He studies alone.

नित्यस्वान्तमयत्वं च बाह्यलोकस्य विस्मृतिः।
पुस्तके प्रीतिभावश्च ममत्वं परमोन्नतम्॥2
He is always contained within himself. Forgets the outside world. He has a lot of love for the book. And the high level belongingness remains immense.

परमव्याकुलीभावः क्षणकालव्ययेन वा।
पुस्तकाध्ययने नन्देत् रिक्तहस्तः स खिद्यते॥3
He gets very upset when even a single moment is wasted. He enjoys reading books. And when his hands are empty without a book, he is very sad.

शान्तस्थानाय चान्विष्येत् गम्भीरवदनः सदा।
अनुकूलौ देशकालौ मार्गयन् भ्रमतीह वै॥4
He keeps on searching for the place which is peaceful with a very serious face. He keeps wandering here and there in search of a favourable place and time.

प्रातः सायं च मध्याह्नं चक्षुषी तस्य पुस्तके।
शब्दाश्वारोहके भूत्वा ते च तस्मिन् हि धावतः॥5
In the morning, evening and afternoon, his eyes are fixed on the book. Climbing on a horse named Shabda (word), his eyes keep running on the book.

गेहे कार्यालये याने नदीतीरे वने रणे।
गच्छन् स्वपन् श्वसन् खादन् तिष्ठन्नुपविशन्नपि ॥6
Whether in the house, in the office, in the car, on the bank of the river, in the forest, in the war, while walking, sleeping, breathing, while eating, even while standing and sitting..

आतपः शीतता वृष्टिर्हिमपातोपि वा भवेत्।
दम्भोलिर्पततान्नाम पुस्तकैके हि मस्तकम् ॥7
Whether it is hot or cold, rain or snow, even when the lightning strikes, his head remains in the book.

मुद्रितं स्पर्शयोग्यं वा ऐपाड् वा किन्डलेव वा।
यत्किञ्चिदपि तद्भूयात् केवलं पुस्तकं भवेत्॥8
Whether it's a touchable printed book or an iPad or Kindle, whatever it is, it just be a book.

पुस्तकं मन्यते श्रेष्ठं पत्न्या अपि धनादपि ।
मित्रबान्धवपुत्राश्च कलां नार्हन्ति षोडशीम्॥9
He considers a book superior to wealth or to a wife. Friends and children do not find even the slightest resemblance to him.

पुस्तकं मम हस्तेस्तु पुस्तकं पूजये मुदा।
पुस्तकेनैव जागर्मि पुस्तकायैव जीवनम्॥10
पुस्तकादेव मत्प्राणाः पुस्तकस्यातिराधकः।(fan अतिराधकः)
पुस्तके मस्तकं मेस्तु त्वमेवाहं हि पुस्तक ॥11
इति स्तोत्रं ह्यनुनित्यं पठति श्रद्धयान्वितः।
प्राणेपि च गतप्राये ग्रन्थं संस्पृश्य जीवति ॥12
I may have the book in my hand. I worship the book with joy. I get up from the book. I live for the book. My life comes from the book itself. I am a huge fanatic of the book. May I keep my head in the book itself. O book, you are me.
He always recites such a hymn with reverence. Even though his life is about to end, he gets back to life by touching the book.

शब्दा भावा हि संसारः वाक्यान्येव हि विश्वकृत्।
पदेनार्थाः पदेभ्योर्थः पदार्थाभ्यां स जीवति॥13
Words are his world. The sentence for him is Brahma. Many meanings from one word, one meaning from many words; he lives only through words and meanings.

मन्यते पुस्तकं स्वस्य ह्येकैकं सुहृदम्महत्।
पुस्तके च पुनः प्राप्ते क्व चान्नं क्व च वै रसः॥14
He considers a book as his only great friend. Once the book is found, what food and where the water?

यावन्तः सन्ति विश्वेस्मिन् ग्रन्थागाराः सुदुर्लभाः।
वाञ्छत्ययं तु सर्वत्र निरङ्कुशसदस्यताम् ॥15
He wants autocratic membership in all the rarest libraries in this world.

अधुना पठितुः गार्ह-सामाज-आध्यात्मिक-प्रयोजनानि
Now we will look at the homely, social and spiritual advantages related to the reader.

आत्मनः-
रसनायां जयः प्राप्तः बाह्यभुक्तिव्ययो न च।
स्वास्थ्यं सुरक्षितं तिष्ठेत् चिकित्सकव्ययो न च॥16
The reader has achieved victory over the tongue. He spends not to eat outside. His health remains safe, so there is no expenditure for the doctor.

पिपासा वा बुभुक्षा वा तावद्यावन्न पुस्तकम्।
विलासभोजनायेप्सा विविधान्नस्पृहा न वा ॥17
(भोजनालये उपाहारालयादिषु)
Thirst and hunger last only until there is a book. There is no desire for luxury food, nor is there any desire for different types of food.

गार्हम्-
रात्रौ लोकः मग्ननिद्रो तदा जागर्ति पाठकः।
शुनकाय व्ययो नास्ति चोरो नायाति तद्गृहम् ॥18
Now home related purposes
When the whole world sleeps at night, the reader wakes up. There is no cost to maintain the dog and the thief does not enter his house.

पत्न्यस्मान्न बिभेत्यन्ने लावण्याद्यसमस्थितौ ।
स्थाल्यां यद्दीयते मौनं खादत्यक्षरखादनैः॥
गृहे च सर्वदा शान्तिः कलहस्य भयो न च॥19
The wife is not afraid of him not having the right amount of salt etc. in the food. He silently eats what is given in the plate, with the grains of letters.

सामाजम्-
नाधिकं भाषते चान्यैः सोदरैर्मित्रबान्धवैः।
मिथ्यावाचो भयं नास्ति चरवाण्या व्ययो न च॥20
Social purpose
He doesn't talk much more with brothers,  friends or relatives. There is no fear of lying. And there is no spending over mobile.

भीत्या पुस्तकचर्चायाः गृहं नायाति कश्चन।
न व्ययोतिथिसत्कारैरल्पाहारैश्च पानकैः॥21
No one comes to his house for fear of discussions over books. That is why there is no spending over hospitality, food, drinks etc.

विनोदस्यास्पदत्वाद्धि पुस्तकस्यैव सर्वधा ।
विहारयात्रादीनामपि नास्ति व्ययो मुधा॥22
Since the book is always the only place of time pass, there is no expenditure on traveling to diffrent places.

नरस्याभरणत्वाच्च पुस्तकस्यैव सर्वथा।
प्रसाधने ह्यलङ्कारे भूषणेषु व्ययो न च॥23
Since a book itself is an ornaments of a man, there is no spening over decorating and wearing ornaments.

आध्यात्मिकम्-
भीत्रार्थभयहेतुर्न पञ्चमी न भयेन वा।
अभयं जीवलोकाय दत्त्वा चरति निःस्पृहः॥24
Spiritual purpose-
There is no Panchami(vibhakti) for fear. He moves desirelessly by giving abhaya (fearlessness)  for all the living beings.

सर्वावस्थासु देशेषु कालेषु च महीतले।
आकाङ्क्षतीदमेवायं तेन जीवामि च म्रिये॥25
In all the states of the world, places and times, on the whole earth, he desires- may I live and die with the book.

जानामि न तपो योगं ध्यानं मन्त्रं न साधनाम्।
ग्रन्थपारायणं नित्यं यावज्जीवामि भूतले॥26
I do not know any austerity, yoga, meditation, mantra or sadhana. But as long as I live in this world, I will read the book.

इतिहासपुराणानि सत्काव्यानि पठामि च।
मननं च करिष्यामि तेषामर्थान् सदा मुदा॥27
I will read itihasas, puranas and good poetry. And I will meditate on their meanings happily.

यत्र गेहे ग्रन्थधानी सा काशीति स मन्यते।
अध्येयानां च ग्रन्थानां दीर्घा सूची च निर्मिता॥28
Where there is a book-rack in the house, he believes that Kashi is there. He has prepared a big list of books to read.

यदि मृत्युर्घटेत प्रागवशिष्टेषु तेष्विह।
पुनर्मानवजन्मेच्छा तेषामध्ययनाय हि॥29
If he dies before having read those books, he wants to take a rebirth only for their study.

शब्दाह्वयेन दीपेनैवं काशयति स्वयम्।
लोकान् काशयते यस्स पठिता जयतात् भुवि ॥30
He illumines himself with a lamp called Shabda. And also illuminates the whole world. Hail to such a reader.

https://youtu.be/hJiqWGjj8OI?t=11465 

अखिलभारतसंस्कृतकविसम्मेळनम्

Saturday 3 August 2019

अनूक्तम्-३३ मम हस्तं सद्गुरुः धरति


अनूक्तम्-३३ मम हस्तं सद्गुरुः धरति 🤝
(अनुवादलेखः)

            कदाचित् कश्चित् साधुः स्वशिष्येण सह कुटीरं प्रति गच्छति स्म। अकस्मात् महान् वृष्टिपातः आरब्धः। नद्यां जलम् अवर्धत। प्रतिनिवर्तनमार्ग एक एवासीत्। सः लघुसेतुः अपि वारिणि निमग्नः आसीत्।
            गुरुः शिष्यमुवाच-- तूर्णं मम पाणिं गृहाण। पारं यावः, परं शिष्यः करं न समधरत्। गुरुणा वारं वारं उक्तेऽपि सः तथा न चकार। ततः गुरुरेव शिष्यबाहुं गृहीत्वा कर्षन् नद्याः पारम् आनयत्। अवदच्च-- अहं कियद्वारम् अगदम्, मम करम् आदेहीति। कुतस्त्वं मे हस्तं नाभरः?
            तदा शिष्योऽब्रवीत्- हे मम गुरुदेव, अहं शक्तिहीनः, दुर्बलश्च। मयि मम विश्वासो न। यदि अहं ते हस्तं आदधामि, तर्हि उत्सृजेयम्। किन्तु मम त्वयि पूर्णः विश्वासः। यदि त्वं आददासि, कदापि न त्यक्ष्यसीति। अतः अहं ते हस्तं नाधरम्।
            -यदि गुरुः सकृत् करम् आदधाति तर्हि गम्यं नीत्वा एव त्यजति॥

--उषाराणी सङ्का
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 నా చేతిని సద్గురువు పట్టుకున్నాడు 🤝
          ఒకసారి ఒక సాధువు తన శిష్యుడితో కలిసి తన కుటీరానికి తిరిగి వెళుతున్నాడు. ఒక్కసారిగా బాగా వర్షం కురిసింది. నదిలో నీరు (మట్టం) పెరిగింది. తిరిగి వెళ్ళటానికి ఒకే మార్గం ఉన్నది. ఆ ఒక చిన్న వంతెన కూడా నీటిలో మునిగింది. గురువు శిష్యుడితో- నీవు నా చేతిని పట్టుకో. దాటుదాము." అన్నాడు. కానీ శిష్యుడు పట్టుకోలేదు. గురువు మాటిమాటికీ చెప్పినా శిష్యుడు ఆ విధంగా చేయలేదు. అప్పుడు గురువే శిష్యుని చేతిని పట్టుకుని లాగుతూ నదిని ఆవలికి తీసుకొని వెళ్ళాడు.
          గురువు - నా చేతిని పట్టుకోమని ఎన్నిసార్లు చెప్పాను! ఎందుకు పట్టుకోలేదు నువ్వు?” అని అన్నాడు. అప్పుడు శిష్యుడు- ఓ గురుదేవా, నేను శక్తిహీనుడిని. దుర్బలుడిని. నాపై నాకు విశ్వాసం లేదు. ఒకవేళ నేను నీ చేతిని పట్టుకుంటే వదిలేసేవాడిని. కానీ నాకు నీ పై పూర్తి విశ్వాసం ఉంది. నీవు పట్టుకుంటే ఎప్పుడూ వదిలిపెట్టవు. అందువల్లే నేను నీ చేతిని పట్టుకోలేదు.అన్నాడు.
          గురువు ఒకసారి చేతిని పట్టుకుంటే గమ్యాన్ని చేరిన తర్వాత వదిలిపెడతాడు.

[వాట్సాప్ లో వచ్చిన ఓ హిందీ సందేశానికి తెలుగు అనువాదం]
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मेरे सतगुरू ने पकड़ी बाँह 🤝
            एक बार एक सन्त अपने शिष्य के साथ अपनी कुटिया में लौट रहे थे ! अचानक वर्षा अधिक हो गई और नदी में पानी बढ़ गया, और लौटने का रास्ता एक ही था जो संक्डा सा पुल था, वह भी पानी में डूबा था।
            गुरु ने शिष्य से कहा- कि जल्दी से मेरा हाथ पकड़ो हम पार कर लेंगे। पर शिष्य ने हाथ नहीं पकड़ा, जब गुरूजी के बार-बार कहने से भी शिष्य नहीं माना तो गुरु ने हाथ पकड़ा और खींचकर नदी के पार ले गए और बोले -- मैं इतनी देर से बोल रहा हूँ मेरा हाथ पकड़ लो। तो हाथ क्यों नहीं पकड़ा ?
            इस पर शिष्य ने उत्तर दिया- कि मेरे गुरुवर, मैं बहुत ही कमज़ोर और दुर्बल हूँ। मुझे खुद पर भरोसा नहीं था। यदि मैं हाथ पकड़ता, तो छोड़ सकता था। लेकिन मुझे आप पर पूरा भरोसा था, कि यदि आपने हाथ पकड़ा तो कभी नहीं छोड़ोगे, इसलिए मैंने हाथ नहीं पकड़ा था ।
            -यदि गुरु ने एक बार हाथ पकड़ लिया तो लक्ष्यस्थान पर ले जाकर ही छोडेंगे ॥

अनूक्तम्-३२ भगवद्गीता कुतः पठ्येत? पठनेन किं भवति?


अनूक्तम्-३२ भगवद्गीता कुतः पठ्येत? पठनेन किं भवति? 📚
(अनुवादलेखः)

कश्चित् वृद्धः कृषकः आसीत्। क्षेत्रे युवकेन स्वपौत्रेण सह वसति स्म। प्रतिदिनं प्रातरुत्थाय स भगवद्गीतां पठति स्म। पौत्राय पितामहस्य कार्याणि बह्वरोचन्त। सोऽपि भगवद्गीतां पठितुमैच्छत्। किन्तु पठित्वा स किमपि अवगन्तुं न शक्नोति स्म। अतः पितामहमपृच्छत्- भोः तात, अहं पुस्तकमधीय समाप्य यदा पार्श्वे न्यस्यामि, तदा किमपि शिरसि न तिष्ठति। अस्य अर्थावगमने तु अहं नितराम् अशक्तः। तर्हि पठनेन किं कोऽपि लाभः सिद्ध्येत?” इति।
            तदा स जीर्णवयस्कः तस्मै प्रथमवयसे अङ्गारकाण्डोलं प्रदाय प्रत्युवाच- एकं कार्यं कुरु। अङ्गारकण्डोलकेन जलमानय, मह्यं च देहि।इति। आमिति उक्त्वा यावत् स कुमारकः तेन पयः आनीय समर्पयेत्, तस्मात् काण्डालात् वारि सर्वमधः पतति स्म। स पुनः आपः भृत्वा सवेगम् आनयत्। तदापि मध्ये एव सर्वं पतितम्। अप्कणमपि तस्मिन् न तिष्ठति स्म। स नववयस्कः अवगन्तुं न पारयति स्म, कथं वेणुनिर्मितः काण्डोलः नीरभरणाय उपयुक्तः स्यात्? किन्तु ज्येष्ठः श्रद्धया कुरु, मा स्म त्यजःइति वदति। स्थविरस्य वचनेन स पुनः पुनः धावित्वा प्रायतत। तथापि वैफल्यमेव। युवा आयासेन श्रान्तः कण्डोलं तत्र क्षिप्त्वा उपाविशत्।
            अथ जरठः हसन् तत्रागत्य तरुणं काण्डालकं प्रादर्शयत्। अधुना पश्य, खनिजाङ्गारैः कृतं कृष्णत्वं सर्वं निर्गतमुत न? शुभ्रं श्वेतं चाभवत्, यथा नूतनम्इति उवाच। सोऽवरजः अवदत्, “किन्तु त्वं तूदकं तेन आपूर्णमानेतुं किलोक्तवान्? किमनेन धवलत्वेन?” इति।
            सर्वं तत्रैवास्ति रहस्यम्। त्वमपि एवमेव सलिलानयने मनः निदधासि। गीताश्लोकानामर्थज्ञानं प्राप्नोमीति, तद्विना पठनं व्यर्थमिति चिन्तयसि। किन्तु यथा वारं वारमम्बुना संयोगेन तस्मिन् कण्डोले स्वच्छतायाता, तथैव त्वय्यपि गीताश्लोकसम्पर्चनेन, पठनमात्रेणापि अन्तःशुचित्वं, मनःशान्तिः च प्राप्यते। तत्र शब्दस्मरणं, बुद्धौ भावार्थज्ञानस्फुरणं भवेन्न वा, चित्तं तु अवश्यं शुद्ध्यति। स्वदृष्टौ, विचारदिशायां च क्रमेण परिवर्तनम् आयास्यति। तद्वयं सपदि साक्षाद् द्रष्टुं न शक्नुमः। तथापि पठनमुपयोगाय एव। अनुभवेन त्वमेतत् ज्ञास्यसि। प्रारम्भकाले एव, ‘पठनं कुतः, को लाभइत्यादिकं विचिन्त्य सर्वः प्रयास एव व्यर्थ इति मा भावय।
            पूर्ववयस्कः अनेन समाधानेन सन्तुष्टः जातः। विमलं भासन्तं काण्डोलं पश्यं पश्यं नन्दति स्म। गीतापठनेन मम अन्तरङ्गं कदा निर्मलं भविष्यतीति व्यचिन्तयत्। प्रयत्ने दृष्टिं न्यस्यामीति सङ्कल्पं कृत्वा पितामहचरणौ ववन्द॥

--उषाराणी सङ्का
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 भगवद्गीता क्यों पढे? पढ़ने से क्या होता है? 📚

एक बूढ़ा किसान रहता था। वह खेत में अपने जवान पोते के साथ निवास करता था। हर दिन सुबह उठकर वह गीता पढ़ता था। पोते को दादा के काम बहुत अच्छे लगते थे। इसीलिए वह भी भगवद्गीता पढ़ना चाहा। पर पढ़ र उसे कुछ समझ में नहीं आया। इसलिए उसने अपने दादा से कहा- दादा, मैं पुस्तक पढ़ना समाप्त करके जैसे ही बगल में रखता हूं, तो कुछ भी सर में नहीं बचता। इसके अर्थ जानने में तो मैं पूरी तरह अशक्त हूं। तो पढ़ने से क्या कोई लाभ होगा?”
            तब उस बूढ़े ने उस युवक को कोयले का टोकरा दिया और कहा- एक काम करो। इस कोयले के टोकरे से पानी भर लाओ और मुझे दो।” ‘हांकहकर वह लड़का उससे पानी लेकर आया तो उस टोकरे से पूरा जल नीचे गिर गया। वह फिर से पानी भरकर जल्दी-जल्दी ले आया तब भी बीच में ही पूरा गिर गया। एक जलबिंदु भी उसमे नहीं बचा। वह लड़का समझ नहीं पा रहा था, कैसे बांस से बना हुआ टोकरा पानी भरने के लिए उपयुक्त होता? पर बड़े ने कहा- श्रद्धा के साथ करो बीच में ना त्यागो।बूढ़े की बात से वह पुनः पुनः दौड़कर प्रयत्न करने लगा। फिर भी विफल हुआ। लड़का थक कर टोकरी वहीं पर फेंक कर बैठ गया।
            तब बूढ़े ने हंसते हुए आकर लड़के को टोकरा दिखाया, और कहा- अभी देखो, कोयले का द्वारा किया गया कालापन सब निकल गया कि नहीं? सफेद, साफ हो गया जैसा नया।
            तब लड़के ने कहा- पर तुम ने तो पानी भर कर लाने को कहा था ना? साफ हुआ, इससे क्या मतलब है?”
            बूढ़े ने कहा- सारा रहस्य वहीं पर तो है। तुम भी इसी प्रकार पानी लाने में मन लगाते हो। सोचते हो कि गीता श्लोक अर्थ का अर्थ ज्ञान पाऊंगा, उसके बिना पढ़ाना व्यर्थ है। पर जिस प्रकार बार-बार पानी के संपर्क होने से उस टोकरी में स्वच्छता आई, उसी प्रकार तुम्हारे अंदर भी गीता श्लोक के संयोग से पठन मात्र से अंदर की शुचिता, मन की शांति मिलेंगे। वहां शब्द याद हो या नहीं, बुद्धि में भावार्थ का ज्ञान हो या नहीं, मन तो अवश्य शुद्ध होगा। अपनी दृष्टि में, विचार दिशा में धीरे-धीरे परिवर्तन आता है। वह हम जल्दी से साक्षात् देख नहीं सकते। फिर भी पढ़ना उपयोगी होगा। अनुभव से तुम इस बात को जानोगे। प्रारंभ में ही पढ़ने से क्या लाभ?’ यह सब सोचकर इस प्रयास को व्यर्थ ना समझो।
            तब वह लड़का उस समाधान से संतुष्ट हुआ। स्वच्छ दिख रहे टोकरी को देख देख कर खुश हुआ। गीता पठन से मेरा मन कब निर्मल होगा?’ यह सोचने लगा और प्रयत्न पर ही दृष्टि रखूंगा- ऐसी संकल्प कर के दादा का चरण छुआ॥

[वाट्साप् पर प्राप्त किसी तेलुगु सन्देश का स्वतन्त्रानुवाद]
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 భగవద్గీతను ఎందుకు చదవాలి? చదువుతే ఏమవుతుంది? 📚

ఒక వృద్ధుడైన రైతు ఉండేవాడు. పొలంలో యువకుడైన తన మనవడితో కలిసి నివసించేవాడు. ప్రతిరోజు ఉదయాన్నే లేచి అతడు భగవద్గీతను చదువుతుండేవాడు. మనవడికి తాత పనులంటే చాలా ఇష్టం. అతడు కూడా భగవద్గీతను చదువుదాం అనుకున్నాడు. కానీ చదివితే ఏమీ అర్థం కాలేదు. అందువల్ల అతను అడిగాడు- తాతా, నేను పుస్తకం చదవటం పూర్తి చేసి పక్కన పెట్టేయంగానే నా తలలో ఏమీ నిలవటం లేదు. దీని అర్థం తెలుసుకోవటంలో నేను అశక్తుడిని. అయితే ఇక చదివి ఏమి లాభం కలుగుతుంది?” అని.
          అప్పుడు ఆ పెద్దాయన అతడికి ఆ యువకుడికి ఓ బొగ్గుల బుట్ట ఇచ్చి అన్నాడు- ఒక పని చెయ్యి. ఈ బొగ్గుల బుట్ట తోటి నీరు తీసుకొని రా. నాకు ఇవ్వు.అన్నాడు. సరేనని ఆ యువకుడు దానితో నీరు తెచ్చి ఇవ్వబోయేలోపల బుట్టలో నీరంతా కింద పడిపోతూ ఉండేది. అతడు మళ్ళీ నీరు నింపి వేగంగా తెచ్చాడు. అదంతా మధ్యలో కిందనే పడిపోయింది. ఒక్క నీటి బిందువు కూడా నిలవటం లేదు. ఆ యువకుడికి అర్థం కాలేదు, వెదురు బుట్ట నీరు నింపి తెచ్చేందుకు ఉపయుక్తమైనదా? కానీ పెద్దాయన శ్రద్ధతో చెయ్యి వదిలి పెట్టకుఅని అంటున్నాడు. ముసలాయన మాటలతో మళ్ళీ మళ్ళీ పరిగెత్తి ప్రయత్నించాడు. అప్పటికి వైఫల్యమే కలిగింది. యువకుడు ఆయాసంతో అలిసిపోయి బుట్టను అక్కడ పడేసి కూర్చున్నాడు.
          అప్పుడు పెద్దాయన నవ్వుతూ అక్కడకు వచ్చి ఆ పిల్లవాడికి బుట్టను చూపించాడు. ఇప్పుడు చూడు బొగ్గులతో వచ్చిన నల్లదనం అంతా పోయిందా లేదా? శుభ్రంగా, తెల్లగా కొత్తదానిలా అయింది..అని అన్నాడు. ఆ పిల్లవాడు అన్నాడు కదా- కానీ నువ్వు నీరు తీసుకుని నింపమని కదా అన్నావు. తెల్లదనం తోటి మనకేంటి సంబంధం?”
          అప్పుడు పెద్దాయన- అక్కడే రహస్యమంతా ఉంది. నువ్వు కూడా ఇట్లాగే నీరు తీసుకురావటంలో మనసు పెడుతున్నావు. గీతా శ్లోకాలు అర్థం చేసుకుంటాను, అది లేకుండా చదవటం వృథాఅని అనుకుంటున్నావు. కానీ మాటిమాటికి నీరు తగలటం వల్ల ఆ బుట్టలో వచ్చినట్లే నీలో కూడా గీతాశ్లోకాలతో సంపర్కం కలిగినంత మాత్రం చేత లోపలశుచి, మనశ్శాంతీ కలుగుతాయి. పదాలు గుర్తుండటం, అర్థం జ్ఞానం కలుగుతాయో లేదో కానీ మనసు మాత్రం తప్పకుండా శుద్ధమవుతుంది. మన దృష్టిలో, ఆలోచనాదిశలో క్రమంగా పరివర్తనం వస్తుంది. అవి మనం నేరుగా, వెంటనే చూడలేము. అయినా పఠనం తప్పక ఉపయోగపడుతుంది. అనుభవంతో ఇది నీవు తెలుసుకుంటావు. ప్రారంభంలోనే చదవటం ఎందుకు ఏం లాభం?’ అనేది ఆలోచిస్తూ ఈ ప్రయాస అంతా వ్యర్థమని అనుకోకు.అన్నాడు.
          యువకుడు ఈ సమాధానంతో సంతుష్టి చెందాడు. నిర్మలంగా కనిపిస్తున్న బుట్టను చూసి చూసి ఆనందించాడు. నా అంతరంగం ఎప్పుడు నిర్మలంగా అవుతుందోఅని ఆలోచించాడు. ప్రయత్నం పై దృష్టిని పెడతాను అని సంకల్పం చేసుకుని తాత పాదాలకు దండం పెట్టాడు.

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