Monday 5 November 2018

अनूक्तम्-२१ सद्गुरुं प्राप्य बन्धान्मुक्तः

सद्गुरुं प्राप्य बन्धान्मुक्तः
(अनुवादलेखः)

कश्चित् पण्डितः प्रतिदिनं राज्ञ्याः पुराणकालक्षेपं कथासत्सङ्गं च करोति स्म। कथान्ते सर्वान् वदति स्म- ‘रामेत्युक्त्वा बन्धान्मुक्तः’
    तदैव पञ्जरे बद्धः शुकः गदति स्म- ‘एवं मा वद, मिथ्या पण्डित।’ तच्छ्रुत्वा पण्डितः क्रोधितः भवति स्म- ‘एते सर्वे किं चिन्तयेयुः, राज्ञी किं भावयेत्?’ इति। स विदग्धः कदाचित् स्वाचार्यमुपगम्य, तं सर्वं वृत्तम् अशंसत्। गुरुः कीरमुपेत्य अपृच्छत् च- “कुतः एवं भणसि रे?”
    वक्रचञ्चुः उवाच- ‘अहं पूर्वं मुक्तः सन् नभसि डये स्म। कदाचित् कस्मिंश्चिद् आश्रमे सर्वे साधवः सन्तश्च राम-राम-राम इति रटन्ति स्म, तत्राहमपि उपाविशम्। अहमपि राम-राम इति रटनमारब्धवान्। एकदा तस्मिन्नेव सज्जनालये राम-राम इति उच्चरामि स्म, तदैव कश्चन सज्जनः मां गृहीत्वा पञ्जरे बद्ध्वा, द्वित्रिश्लोकान् अशिक्षयत। तस्मात् सतां गृहात् कश्चित् व्यापारी धनं दत्त्वा माम् अक्रीणात्। अधुना वणिक् मां रजतपञ्जरे समस्थापयत्। मम अमोक्षं वर्धते स्म। बहिः गन्तुं मार्गो नासीत्। एकस्मिन् दिने स श्रेष्ठी स्वकार्यसिद्धये मां नृपाय उपहाररूपेण अददात्। स भूपः सन्तुष्टः सन् मां स्वीकृतवान्, यतो हि अहं राम-राम इति उच्चरामि स्म। नृपपत्नी धार्मिकप्रवृत्तिवती आसीत्। अतः महीपतिः मां स्वभार्यायै समर्पयत्। वदाधुना कथमहं निगदेयम्, ‘राम-राम इति जपेन बन्धान् मुच्यते’ इति।
    कीरः गुरुं प्रार्थयत्- ‘मन्निर्बन्धनाशाय युक्तिं काञ्चिद् वदे’ति। आचार्योऽवादीत्- “अद्य त्वं मौनेन शेष्व (शयनं कुरु), चलनं किञ्चिदपि मा भूत्। राज्ञी भावयेत्, त्वं मृत इति। तदा मोचयति।” तथैवाभवत्। अपरस्मिन् दिने कथासमाप्तौ यदा किङ्किरातः किञ्चिन्नावदत्, तदा विद्वान् आश्वस्तः जातः। राजपत्नी अचिन्तयत्- ‘कीरस्तु अचेतनः शेते, मृतः स्यात्’ इति। नृपपत्नी पञ्जरम् उदघाटयत्, तदैव वक्रचञ्चुः पञ्जरात् निर्गतः, आकाशे उदडयत। उड्डयन् रटति स्म- ‘सद्गुरुं प्राप्य बन्धान्मुक्तः’ इति।
    अतः यावच्छक्ति शास्त्रमधीयतां, जपः क्रियतां, किन्तु सद्गुरुं विना बन्धमोचनं न घटते।

--उषाराणी सङ्का

-----------------------
सतगुरु मिले तो बंधन छूटे

एक पंडित जी रोज रानी के पास कथा करता था। कथा के अंत में सबको कहता कि ‘राम कहे तो बंधन टूटे’ तभी पिंजरे में बंद तोता बोलता, ‘यूं मत कहो रे पंडित झूठे’ पंडित को क्रोध आता कि ये सब क्या सोचेंगे, रानी क्या सोचेगी। पंडित अपने गुरु के पास गया, गुरु को सब हाल बताया। गुरु तोते के पास गया और पूछा तुम ऐसा क्यों कहते हो?
    तोते ने कहा- ‘मैं पहले खुले आकाश में उड़ता था। एक बार मैं एक आश्रम में जहां सब साधू-संत राम-राम-राम बोल रहे थे, वहां बैठा तो मैंने भी राम-राम बोलना शुरू कर दिया। एक दिन मैं उसी आश्रम में राम-राम बोल रहा था, तभी एक संत ने मुझे पकड़ कर पिंजरे में बंद कर लिया, फिर मुझे एक-दो श्लोक सिखाये। आश्रम में एक सेठ ने मुझे संत को कुछ पैसे देकर खरीद लिया। अब सेठ ने मुझे चांदी के पिंजरे में रखा, मेरा बंधन बढ़ता गया। निकलने की कोई संभावना न रही। एक दिन उस सेठ ने राजा से अपना काम निकलवाने के लिए मुझे राजा को गिफ्ट कर दिया, राजा ने खुशी-खुशी मुझे ले लिया, क्योंकि मैं राम-राम बोलता था। रानी धार्मिक प्रवृत्ति की थी तो राजा ने रानी को दे दिया। अब मैं कैसे कहूं कि ‘राम-राम कहे तो बंधन छूटे’। गुरु ने कहा- सच ही तो है।
    तोते ने गुरु से कहा आप ही कोई युक्ति बताएं, जिससे मेरा बंधन छूट जाए। गुरु बोले- आज तुम चुपचाप सो जाओ, हिलना भी नहीं। रानी समझेगी मर गया और छोड़ देगी। ऐसा ही हुआ। दूसरे दिन कथा के बाद जब तोता नहीं बोला, तब संत ने आराम की सांस ली। रानी ने सोचा तोता तो गुमसुम पड़ा है, शायद मर गया। रानी ने पिंजरा खोल दिया, तभी तोता पिंजरे से निकलकर आकाश में उड़ते हुए बोलने लगा ‘सतगुरु मिले तो बंधन छूटे’
    अतः शास्त्र कितना भी पढ़ लो, कितना भी जाप कर लो, लेकिन सच्चे गुरु के बिना बंधन नहीं छूटता।

-----------------------
 గురువును పొందిన బంధం వీడును
ఒక పండితుడు ప్రతిరోజు రాణి వద్ద పురాణకాలక్షేపం, కథాసత్సంగం చేస్తుండేవాడు. కథ చివర అందరితో- “రామ అనండి, బంధము వీడును” అని అనేవాడు. అప్పుడు పంజరంలో బంధించి ఉన్న చిలుక- “అది అంతా ఒక పచ్చి అబద్ధం” అని అనేది. అది విని పండితుడికి కోపం వచ్చేది. ‘వీళ్ళంతా ఏమనుకుంటారు? రాణి ఏమనుకుంటుంది?’ అని అనుకునేవాడు. ఒకసారి ఆ పండితుడు తన గురువు వద్దకు వెళ్ళి ఆయనకు వృత్తాంతమంతా చెప్పాడు. ఆ గురువు ఆ చిలక వద్దకు వెళ్ళి, “నువ్వు ఎందుకు అట్లా అంటావు?” అని అడిగాడు.
    అప్పుడు చిలక చెప్పింది- “నేను పూర్వం హాయిగా ఆకాశంలో ఎగిరేవాడిని. ఒకసారి ఒక ఆశ్రమంలో సాధువులు అంతా ‘రామ రామ’ అంటూ ఉన్నారు. నేనూ అక్కడ కూర్చున్నాను. ‘రామ రామ’ అని అనటం మొదలు పెట్టాను. ఒకసారి అదే సాధుగృహంలో ఉండి ‘రామ రామ’ అని అంటూ ఉండగా ఒక సాధువు నన్ను పట్టుకొని పంజరంలో బంధించి, రెండు మూడు శ్లోకాలు నేర్పాడు. ఆ సాధువుల నిలయం నుండి ఒక వ్యాపారి డబ్బు ఇచ్చి నన్ను కొనుక్కున్నాడు. ఆ వ్యాపారి నన్ను వెండి పంజరంలో బంధించాడు. నా బంధనం పెరుగుతూనే ఉంది. బయటకు వెళ్ళటానికి మార్గమే లేదు. ఒకసారి ఆ శెట్టి తన పని చేయించుకోవడానికిగాను నన్ను రాజుకు కానుకగా ఇచ్చాడు. ఆ రాజు సంతుష్టుడై నన్ను తీసుకున్నాడు. ఎందుకు? నేను ‘రామ రామ’ అంటున్నాను కనుక. రాజు భార్య ధార్మిక ప్రవృత్తి కలది. అందువల్ల ఆ రాజు నన్ను తన భార్యకు అందించాడు. ఇప్పుడు చెప్పు, ‘రామ రామ’ అంటే బంధాలు తొలగుతాయని నేను ఎట్లా అనాలి?” గురువు “నిజమే కదా” అన్నాడు.
    ఆ చిలుక గురువును - “నా బంధం పోగొట్టటానికి ఏదైనా యుక్తిని చెప్పు.” అని ప్రార్థించింది. ఆచార్యుడు - “ఈ రోజు నువ్వు మౌనంగా పడుకో. కాస్త కూడా కదలద్దు. రాణి నువ్వు చచ్చిపోయావు అని అనుకుంటుంది. అప్పుడు వదిలిపెడుతుంది.” అని చెప్పాడు. అదే జరిగింది. తర్వాత రోజు కథ పూర్తయిన తర్వాత ఆ చిలుక ఏమి మాట్లాడక పోయేసరికి పండితుడు ‘హమ్మయ్య’ అనుకున్నాడు. రాజపత్ని, ‘ఈ చిలక కదలకుండా పడుకుంది. చచ్చిపోయి ఉంటుంది.’ అనుకుంది. అనుకుని రాణి ఆ పంజరాన్ని తెరిచింది. వెంటనే చిలుక పంజరం నుండి బయటికి వచ్చి ఆకాశంలోకి ఎగిరిపోయింది. ఎగురుతూ- “గురువును పొందిన బంధం వీడును” అని అంది.
    అందువల్ల ఎంత శాస్త్రాలు చదివినా, జపాలు చేసినా, సద్గురువు లేకుండా బంధ మోచనం సాధ్యం కాదు.

[వాట్సాప్ లో ప్రాప్తించిన ఓ హిందీ సందేశానికి తెలుగు అనువాదం]

अनूक्तम्-२० प्रभोः कृपा

प्रभोः कृपा
(अनुवादलेखः)

रात्रौ नववादोपान्तसमयः। अकस्मात् मम कण्डुबाधा जाता। गेहे औषधं नासीत्। अन्यच्च तदानीं मां विहाय गृहे अन्यः कोऽपि नासीत्। मदीया श्रीमती पुत्रगृहं गतवती, अहमेकाकी आसम्। वाहनचालकमित्रम् अपि स्ववेश्म निर्गतः। श्रावणमासकालः आसीत्, अतः बहिः अल्पा वृष्टिः पतति स्म। अगदस्य आपणं नातिदूरे स्थितं; पादयोः चलित्वा गन्तुं शक्मोमि किन्तु वृष्टिकारणेन अहं रिक्शायानस्वीकारः समुचितः इति विचिन्तितवान्।
    पार्श्वे राममन्दिरं निर्मीयते स्म। कश्चित् रिक्शाचालकः भगवन्तं प्रार्थयते स्म। अहं तमपृच्छम्- "अपि चलसि?" सः अङ्गीकुर्वन् शिरः चालितवान्। अहं रिक्शायामुपाविशम्! रिक्शाचालकः अस्वस्थः दृश्यते स्म। तस्य नेत्रे सजले। अहमपृच्छम्, "किमभवत् भ्रातः! कुतः रोदिषि? तव स्थितिरपि स्वस्था न आभाति।" सोऽवाच, "वर्षकारणेन दिनत्रयात् कोऽपि नागतः। अहं बुभुक्षितः। शरीरमपि पीडाहतम्। अधुनैव भगवन्तं प्रार्थयामि स्म, ‘अद्य मह्यं भोजनं देहि’ इति, मम रिक्शायानाय यात्रिकं प्रेषयेति च" इति।
    अहं किमपि अनुक्त्वा रिक्शामारुह्य भेषजापणं प्रति अगच्छम्। तत्र स्थित्वा व्यचारयम्... "किं भगवान् माम् अस्य साहाय्यार्थं प्रेषितवान्? कुतः? यदि अर्धघण्टायाः पूर्वं मम कण्डूपीडा जायेत, तदाहं वाहनचालकेन अगदं आनाययेयम्। निशीथिन्यां बहिः यानाय मम आवश्यकता नासीत्। अथ च प्रावृट् नाभवेत्, तर्हि रिक्शायां नारोहेय। मनसि भगवन्तं स्मृत्वा अपृच्छम्! "किं भवान् मां रिक्शापुरुषस्य उपकृतये प्रैषयत्?" मनसि समाधानं लब्धवान् "आम्" इति।
    अहं भगवन्तं धन्यवादं समर्प्य, मदर्थम् औषधं स्वीकृत्य, रिक्शानराय अपि अगदम् अगृह्णाम्। पार्श्वे खाद्यालयतः छोलेभटूरे इति खाद्यं स्वीकृत्य आगत्य रिक्शायामुपाविशम्। यस्य मन्दिरस्य पुरतः रिक्शाम् आरूढवान् तत्रैवागत्य अहं रिक्शायानं स्थापयित्वा तस्य हस्तयोः रिक्शार्थं ३० रूप्यकाणि दत्तवान्, सोष्णस्य छोलेभटूरेखाद्यस्य पोटलिकां, भेषजं च प्रदाय एवमवदम्,"भक्ष्यमिदं भक्षयित्वा अगदमिमं खादतु, एकं एकं गोलिकां- एते द्वे अधुना, एकं एकं च श्वः प्रातः प्रातराशं खादित्वा। ततः आगत्य मां दर्शय स्वस्थितिम्” इति।
    सः रिक्शामर्त्यः रुदन् अवादीत्, "अहं तु भगवन्तं द्वे रोटिके अपृच्छम्। किन्तु भगवान् मह्यं छोलेभटूरेभक्ष्यं दत्तवान्। कतिपयमासेभ्यः पूर्वम् अहमिदम् आस्वादितुं ऐच्छम्। अद्य भगवान् मम प्रार्थनाम् अशृणोत्। यः मन्दिरनिकटे तस्य भक्तः निवसति तं मयि अनुग्रहं कर्तुं प्राहिणोत्।"
    सः ततोऽपि भूयांसि वचांसि लपति स्म, किन्त्वहं स्तब्धः अशृणवम्। गृहमेत्य व्यतर्कयं च, ‘तस्मिन् भक्ष्यालये अन्यान्यपि बहूनि खाद्यवस्तूनि आसन्, अहं तु यत्किमपि क्रेतुं प्रभवामि स्म, समोसा अथवा भोजनस्थालीं वा.. परमहं केवलं छोलेभटूरेखाद्यमेव कुतः क्रीतवान्? किं भगवान् मां क्षपायां स्वभक्तोपकाराय एव प्राहिणोत्?’ वयं यदा कस्यचित् अनुग्रहार्थं युक्ते काले यामः, तस्य अर्थः एवं भवति- तन्मानवस्य प्रार्थनां भगवान् आकर्णयदिति, अस्मान् च प्रतिनिधिं कारयित्वा तस्य उपकृतये प्रैषयदिति च।
    हे प्रभो! एवमेव सदा मम मार्गं दर्शय, इदमेव त्वां प्रार्थयामि।🙏

--उषाराणी सङ्का

-----------------------
 प्रभुकृपा
रात नौ बजे लगभग अचानक मुझे एलर्जी हो गई। घर पर दवाई नहीं, न ही इस समय मेरे अलावा घर में कोई और। श्रीमती जी बच्चों के पास दिल्ली और हम रह गए अकेले। ड्राईवर मित्र भी अपने घर जा चुका था। बाहर हल्की बारिश की बूंदे सावन महीने के कारण बरस रही थी। दवा की दुकान ज्यादा दूर नहीं थी पैदल भी जा सकता था लेकिन बारिश की वज़ह से मैंने रिक्शा लेना उचित समझा।
    बगल में राम मन्दिर बन रहा था। एक रिक्शा वाला भगवान की प्रार्थना कर रहा था। मैंने उससे पूछा, "चलोगे?", तो उसने सहमति में सर हिलाया और बैठ गए हम रिक्शा में! रिक्शा वाला काफी़ बीमार लग रहा था और उसकी आँखों में आँसू भी थे। मैंने पूछा, "क्या हुआ भैया! रो क्यूँ रहे हो और तुम्हारी तबियत भी ठीक नहीं लग रही।" उसने बताया, "बारिश की वजह से तीन दिन से सवारी नहीं मिली और वह भूखा है बदन दर्द भी कर रहा है, अभी भगवान से प्रार्थना कर रहा था क़ि आज मुझे भोजन दे दो, मेरे रिक्शे के लिए सवारी भेज दो"।
    मैं बिना कुछ बोले रिक्शा रुकवाकर दवा की दुकान पर चला गया। वहां खड़े खड़े सोच रहा था... "कहीं भगवान ने तो मुझे इसकी मदद के लिए नहीं भेजा। क्योंकि यदि यही एलर्जी आधे घण्टे पहले उठती तो मैं ड्राइवर से दवा मंगाता, रात को बाहर निकलने की मुझे कोई ज़रूरत भी नहीं थी, और पानी न बरसता तो रिक्शे में भी न बैठता।"मन ही मन भगवांन को याद किया और पूछ ही लिया भगवान से! मुझे बताइये क्या आपने रिक्शे वाले की मदद के लिए भेजा है?"मन में जवाब मिला... "हाँ"...।
    मैंने भगवान को धन्यवाद दिया, अपनी दवाई के साथ रिक्शेवाले के लिए भी दवा ली। बगल के रेस्तरां से छोले भटूरे पैक करवाए और रिक्शे पर आकर बैठ गया। जिस मन्दिर के पास से रिक्शा लिया था वहीँ पहुंचने पर मैंने रिक्शा रोकने को कहा। उसके हाथ में रिक्शे के 30 रुपये दिए, गर्म छोले भटूरे का पैकेट और दवा देकर बोला,"खाना खा कर यह दवा खा लेना, एक एक गोली ये दोनों अभीऔर एक एक कल सुबह नाश्ते के बाद,उसके बाद मुझे आकर फिर दिखा जाना।
    रोते हुए रिक्शेवाला बोला, "मैंने तो भगवान से दो रोटी मांगी थी मग़र भगवान ने तो मुझे छोले भटूरे दे दिए। कई महीनों से इसे खाने की इच्छा थी। आज भगवान ने मेरी प्रार्थना सुन ली। और जो मन्दिर के पास उसका बन्दा रहता था उसको मेरी मदद के लिए भेज दिया।"
    कई बातें वह बोलता रहा और मैं स्तब्ध हो सुनता रहा। घर आकर सोचा क़ि उस रेस्तरां में बहुत सारी चीज़े थीं, मैं कुछ और भी ले सकता था, समोसा या खाने की थाली .. पर मैंने छोले भटूरे ही क्यों लिए? क्या सच में भगवान ने मुझे रात को अपने भक्त की मदद के लिए ही भेजा था..? हम जब किसी की मदद करने सही वक्त पर पहुँचते हैं तो इसका मतलब उस व्यक्ति की प्रार्थना भगवान ने सुन ली, और हमें अपना प्रतिनिधि बनाकर उसकी मदद के लिए भेज दिया।
    हे प्रभु ऐसे ही सदा मुझे राह दिखाते रहो, यही आप से प्रार्थना है।

-----------------------

  భగవత్ కృప

రాత్రి 9 గంటల ప్రాంతంలో నాకు అకస్మాత్తుగా ఎలర్జీ వచ్చింది. ఇంటిదగ్గర మందు లేదు. నేను తప్ప ఇంట్లో ఎవరూ లేరు. భార్య మా కొడుకు ఇంటికి వెళ్ళింది. నేను ఒక్కడినే ఉండిపోయాను. డ్రైవర్ కూడా తన ఇంటికి వెళ్లిపోయాడు. వర్షాకాలం కనుక బయట కొద్దిగా వాన పడుతున్నది. మందు దుకాణం ఎక్కువ దూరం లేదు. నడుచుకుంటూ కూడా వెళ్ళగలను. కానీ వాన పడుతున్నది కనుక నేను రిక్షా చేసుకోవడం సరైన పని అనుకున్నాను.
    పక్కనే రాముని గుడి కడుతున్నారు. ఒక రిక్షా అతడు భగవంతుడిని ప్రార్థిస్తున్నా డు. నేను అతడిని వస్తావా అని అడిగాను. అతను వస్తాను అని తల ఊపంగానే నేను ఎక్కేసాను. రిక్షా అతను చాలా అనారోగ్యంగా అనిపించాడు. అతని కళ్ళల్లో కన్నీరు కూడా ఉంది. “ఏమైంది నాయనా? ఎందుకు ఏడుస్తున్నావు? ఒంట్లో బాగోలేదులా ఉంది.” అని నేను అడిగాను. “వర్షం వల్ల మూడు రోజుల నుండి ఎవరూ దొరకలేదు. ఆకలిగా ఉంది. ఒళ్ళు నొప్పులుగా కూడా ఉంది. ఇప్పుడే భగవంతుని ప్రార్థిస్తున్నాను. ‘భోజనం పంపించు నాయనా’ అని.” అని అతడు చెప్పాడు.
    నేను ఏమీ మాట్లాడకుండా రిక్షా ఆపించుకుని, మందు దుకాణానికి వెళ్ళిపోయాను. అక్కడ ఆలోచిస్తూ ఉన్నాను. ‘భగవంతుడు నన్ను ఇతని సహాయం కోసం పంపలేదు కదా? ఎందుకంటే ఇదే ఎలర్జీ అరగంట ముందు వచ్చి ఉంటే నేను డ్రైవర్ని పంపేవాడిని. రాత్రి బయటకు పోవటం నాకు అవసరం ఉండేది కాదు. నేను కూడా వెళ్ళాలనుకునే వాడిని కాదు.’ భగవంతుని అడిగేసాను- నన్ను ఈ రిక్షా అతడి సహాయార్థం పంపావు కదా? అని. జవాబు ‘అవును’ అని వచ్చింది.
    నేను భగవంతుడికి ధన్యవాదాలు చెప్పుకొని, నా మందుతో పాటు రిక్షావాడి కోసం కూడా మందు తీసుకొన్నాను. పక్కనే ఒక చిన్న రెస్టారెంటులో ఛోలే భటూరే కొని, ప్యాక్ చేయించి, వచ్చి రిక్షా ఎక్కి కూర్చున్నాను. ఏ గుడి ముందర రిక్షా ఎక్కానో అక్కడికే వచ్చి ఆపించుకుని, దిగాను. అతడి చేతిలో రిక్షా తోలినందుకు 30 రూపాయలు పెట్టి, వేడి వేడి ఛోలే భటూరే, మందులు ఇచ్చి, ఇట్లా చెప్పాను- “ఈ ఆహారం తిని మందు వేసుకో. ఒక్కొక్క మాతర- ఇవి ఇవాళ, ఇవి రేపు పొద్దున టిఫిన్ తిన్న తర్వాత. ఆ తర్వాత నాకు వచ్చి చూపించుకుని వెళ్ళు.”
    అప్పుడు రిక్షా అతను ఏడుస్తూ అన్నాడు- “నేను భగవంతుడిని రెండు రొట్టెలు అడిగాను. ఆయన నాకు ఛోలే భటూరే పెట్టాడు. చాలా నెలల ముందు నాకు ఇవి తినాలి అని కోరిక కలిగింది. ఈరోజు భగవంతుడు నా ప్రార్థన విన్నాడు. భగవంతుని మందిరం దగ్గర ఆయన భక్తుడిని నా సహాయం కోసం పంపించాడు.”
    అట్లా ఇంకా ఏవేవో మాటలు చెప్తూ ఉండిపోయాడు. నేను స్తబ్ధంగా ఉండి వింటూ ఉండిపోయాను. ఇంటికి వచ్చి ఆలోచించాను- ఆ రెస్టారెంట్ లో చాలా వస్తువులు ఉన్నాయి. నేను ఏదైనా కొనగలిగేవాడిని. సమోసా, లేదా భోజనం కానీ.. నేను చోలే బటూరే మాత్రమే ఎందుకు కొన్నాను? నిజంగా భగవంతుడు రాత్రిపూట తన భక్తుని సహాయార్థం నన్ను పంపాడు.
    మనము ఎవరికైనా సహాయం చేసేందుకు సరైన వేళకు చేరితే భగవంతుడు అతని ప్రార్థన విన్నాడు అని దాని అర్థం. మనను తనకు ప్రతినిధిగా పంపాడు అని అర్థము.
    ఓ భగవంతుడా ఎప్పుడూ నాకు సరైన దారి చూపిస్తూ ఉండు తండ్రీ!

[వాట్సాప్ లో వచ్చిన ఓ హిందీ లేఖకు తెలుగు అనువాదం]