Friday 6 April 2018

अनूक्तम्-३ कालातीतात् पूर्वमेव विद्धि तत्त्वं हि स्वस्य


कश्चन अमेरिकादेशीयः यात्री भारतदेशे कञ्चन योगिनमुगतवान् । योगिनः गृहम् अत्यन्तं निराडम्बरमासीत् इति सः अपश्यत्। तत्र सम्पूर्णानि वस्तूनि द्वे एव- कटः, घटश्च।
यात्री अपृच्छत्- "भवति अत्यन्तमादरेण किमहं प्रष्टुमर्हामि? भवतः सामाग्री, अन्यानि सर्वाणि वस्तूनि च कुत्र सन्ति?"
योगी अपृच्छत्- "तव कुत्र सन्ति?"
यात्री अवदत् "मम? किन्तु अहं तु अत्र केवलो यात्री।"
योगी अवदत् "अहमपि।"
-----------

जीवन को समझलो, कहीं देर न होजाए


एक अमेरिका से आया हुआ यात्री भारत देश में किसी योगी से मिला। उसने देखा कि योगी का घर बहुत ही सादा है। वहां पर पूरा सामान था, केवल एक दरी और एक मटका है।

यात्री ने पूछा कि "आप पर पूरे आदर के साथ क्या मैं पूछ सकता हूं कि आपके फर्नीचर और बाकी वस्तु कहां है?"

योगी ने कहा "तुम्हारे कहां है?"

यात्री ने कहा "मेरे? लेकिन मैं तो यहां पर केवल एक यात्री हूं।"

योगी ने कहा "मैं भी।"
-----------

An American tourist visited an Indian Yogi. He was astonished to see that the Yogi's home was a plain, simple room. The only furniture was a mat and an earthen water-pot.
Tourist :"Yogi, with due respect, may I ask: where's your furniture and other household things?"
Yogi : "Where is yours?"
Tourist : "Mine? But I'm only a visitor here."
Yogi : "So am I !!"